गोंडी संस्कृति
के जनक ‘पारी कुपार लिंगो’ की जन्म लोककथा
ऐसा कहा जाता है कि लोककथा में लिंगों का जन्म पहांदी वृक्ष के फूल में हुआ है। एक समय में बहुत ही तेजी से वर्षा की झड़ी लग रही थी। सब नदी-नाले लबालब भरकर बहने लगे। पेनगंगा नदी भी भरकर बहने लगी। सब तरफ भारी मात्रा में बाढ़ आ गई। बिजली गरजने से धरती कापने लगी। पहांदी वृक्ष नदी के किनारे फूलों से बहर रहा था। उस वृक्ष के एक फूल पर तेजपुज गिर पड़ा। उससे सभी फूल नदी में गिरे और कुछ समय बाद उसी जगह पर भंवर चक्र आया। सभी फूल उसमें गिरने लगे और घूमने लगे। बारिश, बिजली, तूफान की गर्जना से सभी ओर धरती कापने लगी। बहुत समय बाद यह सब गतिविधियाँ शांत हो गई। जहाँ पर भवर चक्र घूम रहा था वह तो निकल गया किन्तु वहाँ पर जो फूलों का गुच्छ था वह तैरते-तैरते पहांदी वृक्ष के नीचे आ गया। उसी फूलों पर एक सुंदर तेजस्वी बालक दिख पड़ा। उसका संपूर्ण शरीर चांदी जैसे चमक रहा था।
इसीलिए उसका नाम ‘रूपोलंग’ दिया गया। रूपोलंग गोंडी भाषा का शब्द है। पहांदी वृक्ष के फूल से लिंगो का जन्म हुआ। इसीलिए उनको ‘पारी कुपार लिंगो’ कहते हैं। उस बालक का समाचार वहाँ के राजा-रानी पुलशिव और हिरबा को दे दीया गया। वहाँ वे उस बालक को ले गए और उन्होंने उसे अपना पुत्र माना। आगे चलकर यही लिंगो महामानव बना। जिस पहांदी वृक्ष से लिंगो का जन्म हुआ। उस वृक्ष को ‘काटसावरी’ कहा जाता है। गोंडी भाषा में इसे ‘कटोरा’ कहते हैं। गोंड आदिवासी समुदाय इसे अपना देववृक्ष मानते हैं। ऐसी मान्यताएं प्रचलित हैं कि इसी वृक्षों के पत्तों से तीन व चार देवों की निर्मिती हुई।
फरवरी माह में
इसी वृक्षों को फूल आते हैं। संपूर्ण वृक्ष के भागों पर कांटे रहते हैं। किन्तु
फूल बहुत ही सुंदर और आकर्षक होते हैं। पूरे साल भर में एक बार फूल आते हैं। नर
पंखुड़ी ६-६ के दल में होते हैं। इसी पंखुड़ियों एवं पत्तों के गणित से ही देवताओं का
विभाजन किया गया। इसी वजह से गोंडी संस्कृति के लोकगीत, लोककथा एवं सामाजिक
व्यवस्था में इस वृक्ष को अधिक पवित्र स्थान है। इस वृक्ष के फूलों की संरचना भी
काफी आकर्षक है। उससे गोंडी के १२ सगाओं का विभाजन किया गया है। यह फूल फरवरी के
माघ महीने में फूलते-खिलते हैं। इसी महीने में इसी फूलों से लिंगों का जन्म हुआ।
यानि की पहांदी वृक्ष के फूल जब फूलते-खिलते रहते हैं। उसी वक्त लिंगों का जन्म
हुआ है। इसीलिए गोंड समुदाय द्वारा उनका जन्मोत्सव इसी महीने में मनाया जाता है।
इस प्रकार से इन
सभी संदर्भों एवं तथ्यों के अनुसार हम कह सकते हैं कि गोंडी संस्कृति के जनक ‘पारी
कुपार लिंगो’ की जन्म लोककथा काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय है।
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संकलन प्रस्तुति-Dr. Dilip Girhe
संदर्भ
उषाकिरण
आत्राम-गोंडवाना में कचारगढ़ पवित्र भूमि
2 टिप्पणियां:
कहानी ठीक से पता नहीं है तो अशिक्षित पब्लिक के सामने सत्य की खोज और उसको लिखने की हिम्मत करना चाहिए न की चमत्कारों के नाम पर मुर्ख बनाने की। प्राकृतिक कानून कभी किसी चमत्कार को नहीं जनम देता। प्रकृति में जनम लेने का केवल एक रास्ता है वो है माँ की कोख। गोंड को कोयातोड़ कोयतोर इसलिए नाम मिला की हम मानते है कि वो माँ के पेट से ही पैदा हुआ ,
अगर ऊपर वाली कहानी किसी के सामने हुआ तो उसका सबूत मिलना चाहिए इस मिथक कहानी पर विस्वास करें तो ये भी मानना पड़ेगा की ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मण
भुजाओं से क्षत्रिय पेट से वैस्व और पैर से शूद्र पैदा हुए पार्वती के शरीर के मैल से गणेश पैदा हुए
पारी कुपार लिंगो की कत्था काल्पनिक है, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। पहले प्रधान जाति के लोग गोंडों के गुरु होते थे, जो इस प्रकार के कथा अपने जिविका के लिए अनपढ़ गोंडों को सुनाते थे। प्रधान आर्यों से प्रभावित थे,जब गोंड शिक्षित होने लगे तो वे हिन्दू धर्म अपना लिए,पर इन कथाओं को जैसे कि गोंडी गाथा तर्कहीन लोग ही सुनते हैं, और आज भी काल्पनिक कथाओं को सुनने वालों की संख्या कम नहीं है।
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