शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

बी एल भूरा की कविता में आदिवासी संवेदना, चेतना और संघर्ष-aadiwasi Kavita-BL Bhura


बी एल भूरा की कविता में आदिवासी संवेदना, चेतना और संघर्ष 

Dr. Dilip Girhe


मैं रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

जीवन के कठिन तपोभूमि मे

 तपती रही

पग पग पर शूल चूभे

चलती रही

हा मन को हारने ना दी

हारके भी जीतता रहा

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

गंगा की जैसी बिना जाने 

मंजिल कहा है

चलता रहा

जंगल ,पहाड मरभूमि को

पार करता रहा

 चलना ही है बस प्रकृति का नियम

यही जान मै बस चलता रहा

मै रहूं ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

ना रही कूछ अपनी उमंग

दफनाती रहा हर अपनी तरंग

जिया हर पल दूसरे के रंग

दिया सबको छाया खूद जलता रहा

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

कहते हो तूम हो नारी पूजनीय

सच बतादो आज क्या देवी पूजी गयी

यूगो से चली आ रही दांस्ता है

छली ही गयी मै छली ही गया हूं

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

उम्मीद पर मै तो चलता रहा

अपना भी दीन आयेगा एक दीन

 तमाम रिस्ते निभाते हूये

कठिन राहो से भी गूजरते हूये

मंजील पर पहूचकर ये पता जब चला

मंजील थी मेरी कही भी नही

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

 आज अपने परिंदो ने ये तो समझा दिया

कि मै तो कूछ थी ही नही

जिनके लिये हमने इतना किया

फिर से हमको चूनौती दिये

क्या यही है एक नारी का जीवन

कही भी ठिकाना ना अपना घर

तभी तो मां सीता ने भी 

ली धरती की डगर

मै रहू ना रहूँ जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

यकीनन रोज मरती है यहा 

 कूचले जाते है ऊनके अरमा

कभी बाप कभी पति कभी बेटा

 क्या कभी स्वतंत्रता पायी कोइ नारी है

नही साहब ये युवा पीढ़ी की दूनिया

अभागन हर नारी है

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार

थोडी सी  इज्जत प्रेम देकर 

ले ली पूरी जिंदगी 

कयी पाटो मे पीसी गयी

रोती बिलखती नारी है

कयी आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार पूरे हो सकते है

हर नारी का दर्द जारी है

मै रहू ना रहू जिंदा रहेगी मेरी 

आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार।

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बीएल भूरा, पटेल नी डुगरी जलीबोर फलिया बड़ा खुटाजा भाबरा जिला अलीराजपुर मध्यप्रदेश

9179231752

काव्य संवेदना:

बी.एल.भूरा की यह कविता आदिवासी जीवन, संस्कृति, और विशेषकर आदिवासी नारी के संघर्ष की सजीव अभिव्यक्ति है। कवि अपने व्यक्तिगत अनुभवों के माध्यम से संपूर्ण आदिवासी समाज की आवाज़ बनता है। यह कविता केवल एक भावनात्मक अभिव्यक्ति नहीं बल्कि आदिवासी अस्मिता का घोषणापत्र है। इसमें कवि कहता है “मैं रहूँ ना रहूँ, जिंदा रहेगी मेरी आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार।” यह पंक्ति पूरी कविता का केंद्रीय भाव है -कि व्यक्ति नश्वर है, पर संस्कृति अमर है। यह कविता उस सामाजिक यथार्थ से जुड़ी है जहाँ आदिवासी समुदाय लंबे समय से संघर्ष, उपेक्षा, और असमानता का सामना कर रहा है।

कवि का जीवन इन्हीं परिस्थितियों से होकर गुजरा है, इसलिए उसकी रचना में यथार्थ का ताप स्पष्ट दिखाई देता है। कविता में न केवल पुरुष का संघर्ष है, बल्कि नारी की पीड़ा, उसकी दबी इच्छाएँ, और सामाजिक बेड़ियों से मुक्ति की पुकार भी है। कविता का मुख्य विषय है—“संघर्ष और सांस्कृतिक अस्मिता की अमरता।” कविता के मुख्य बिंदु हैं-आदिवासी समाज का निरंतर संघर्ष, नारी की सामाजिक और मानसिक पीड़ा,प्रकृति से जुड़ा जीवन-दर्शन, आशा और आत्मबल की अमर ज्योति। कवि बार-बार यह दोहराता है कि भले व्यक्ति मिट जाए, पर आदिवासी समाज की संस्कृति और संस्कार कभी नष्ट नहीं होंगे। “जीवन के कठिन तपोभूमि में तपती रही, पग-पग पर शूल चुभे, चलती रह हैं। यह पंक्ति आदिवासी जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का प्रतीक है।

कवि ने जीवन को तपोभूमि कहा है-जहाँ हर कदम पर दुख, संघर्ष और कष्ट हैं, पर समाज फिर भी हार नहीं मानता। “कहते हो तुम हो नारी पूजनीय, सच बताओ आज क्या देवी पूजी गयी।” यहाँ कवि समाज के दोहरापन को उजागर करता है-जहाँ नारी को देवी कहा जाता है, पर व्यवहार में उसका अपमान, उत्पीड़न और उपेक्षा होती है। यह पंक्तियाँ आदिवासी नारी ही नहीं, बल्कि समूची स्त्री जाति की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करती हैं। “थोड़ी सी इज्जत प्रेम देकर ले ली पूरी ज़िंदगी, कई पाटों में पीसी गयी, रोती बिलखती नारी है।” यहाँ कवि नारी की व्यथा को अत्यंत करुणा और यथार्थ के साथ प्रस्तुत करता है। यह नारी की दुर्दशा और शोषण की गाथा है, जो आज भी समाप्त नहीं हुई। कविता की भाषा सरल, सहज और बोलचाल की हिंदी, जिसमें लोक-जीवन की सजीवता है। कहीं-कहीं आदिवासी बोली का स्पर्श भी मिलता है, जो इसे स्थानीयता और प्रामाणिकता प्रदान करता है। कविता में भाव पर बात करे तो-

संघर्ष का भाव: कठिनाइयों के बीच भी आगे बढ़ने की प्रेरणा।आत्मगौरव: अपनी संस्कृति और परंपरा पर गर्व।

नारी पीड़ा: समाज में नारी की स्थिति पर करुण दृष्टि।

आशा और दृढ़ता: हारकर भी न हारने की मनोवृत्ति।

कविता में आदिवासी संस्कृति की मूल आत्मा झलकती है —जैसे प्रकृति से जुड़ाव, सामूहिकता, श्रम का सम्मान, और नारी का भावनात्मक केंद्र होना। कवि यह संदेश देता है कि आदिवासी समाज चाहे जितना दबा दिया जाए, उसकी संस्कृति, लोकविश्वास और जीवनदृष्टि कभी समाप्त नहीं होगी। कवि का संदेश अत्यंत स्पष्ट है। “व्यक्ति मर सकता है, पर समाज की संस्कृति और अस्मिता अमर रहती है।” साथ ही, वह यह भी कहता है कि नारी को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि स्वतंत्र और सम्माननीय स्थान मिलना चाहिए।

बी.एल. भूरा की यह कविता आदिवासी समाज की संवेदना, चेतना और संघर्ष की सशक्त आवाज़ है। यह कविता न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेज़ के रूप में भी अमूल्य है।“मैं रहूँ ना रहूँ, जिंदा रहेगी मेरी आदिवासी समाज संस्कृति संस्कार”-यह केवल एक पंक्ति नहीं, बल्कि आदिवासी अस्मिता की अमर घोषणा की है।

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