‘माय लॉर्डच’ आदिवासी आरक्षण की जड़ पर…!
-राजेंद्र मरसकोल्हे, नागपुर
1980 के दशक से न्यायव्यवस्था में याचिका, जनहित याचिकाओं के संदर्भ में इस्तेमाल होने वाला ‘ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म’ शब्द अब काफ़ी प्रचलित हो गया है। इसका साधारण अर्थ है– कानून या न्याय की तयशुदा चौखट को दरकिनार कर न्यायाधीशों द्वारा ऐसा न्याय देना, जिससे शासन या राजनीतिक नीतियों पर असर पड़े। यह शब्द आदिवासियों की नौकरी व शिक्षा संबंधी आरक्षण पर मुंबई खंडपीठ के कुछ फैसलों में हुए अवलोकनों पर बिल्कुल सटीक बैठता है।
अनुसूचित जनजाति वर्ग से नकली जाति प्रमाणपत्र लेकर उच्च शिक्षा, नौकरी और पदोन्नति हासिल करने वालों को सेवासुरक्षा देते समय न्यायालयों की यह न्यायिक सक्रियता साफ़ नज़र आई। महाराष्ट्र के आदिवासियों की अशिक्षा, कानून की अनभिज्ञता और आत्मबोध खो चुके नेतृत्व की नाकामी का फायदा उठाकर लाखों गैर-आदिवासियों ने नकली जाति प्रमाणपत्र बनवाए और मेडिकल, इंजीनियरिंग, आईआईटी जैसी उच्च शिक्षा में आरक्षण का लाभ लेकर राज्य व केंद्र की नौकरियाँ बड़ी संख्या में हथिया लीं। यह सिलसिला आज तक जारी है।
2001 में जाति-पड़ताल कानून लागू होने के बावजूद 15 जून 1995, 30 जून 2004 और 21 अक्टूबर 2015 जैसे शासन-निर्णयों के ज़रिए नौकरी में सेवासुरक्षा दी गई। मिलींद कटवारे और कविता सोलंकी जैसे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले भी मानवीय दृष्टिकोण के नाम पर जाति-चोरों को संरक्षण देने वाले साबित हुए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा– “धोखे से पाई गई नौकरी अब बनी रहेगी, पर आगे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।” ऐसे फैसले लाखों नकली आदिवासियों को अवसर देते हुए वास्तविक आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों पर चोट पहुँचाने वाले थे।
गैर-आदिवासियों की इस सेंधमारी से लाखों आदिवासी अपने अधिकार से वंचित रह गए। 2016 में नकली जाति प्रमाणपत्र से मेडिकल प्रवेश की खबरें बड़े अख़बारों के पहले पन्ने पर छपीं, लोकसत्ता ने तो लेखमाला ही प्रकाशित की। मेडिकल शिक्षा पर एक छात्र पर सरकार 40–50 लाख रुपये (सार्वजनिक धन) खर्च करती है, और यह धन नकली प्रमाणपत्रों पर लूट लिया गया, मगर न्यायालय ने कभी स्यू-मोटो सक्रियता दिखाकर इसे रोकने की कोशिश नहीं की।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने नांदेड की छात्रा चैतन्या पालेकर के मामले में कहा कि “एक असली आदिवासी चिकित्सा डिग्री से वंचित रहा” और उसके नकली जाति प्रमाणपत्र को साबित मानते हुए भी उसकी डिग्री कायम रखी और सिर्फ़ 5 लाख का जुर्माना लगाया। यानी जाति चोरी के बाद भी 5 लाख देकर डिग्री वैध हो सकती है– यह धनिकों के लिए कभी भी किफ़ायती सौदा है।
शासन ने इस समस्या को सुलझाने के लिए समितियाँ, विशेष जांच दल, टाटा संस्थान का सर्वेक्षण आदि बनाए, लेकिन स्थायी समाधान की इच्छा कभी नहीं दिखाई। आखिरकार 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जगदीश बहिरा प्रकरण में कहा कि सेवासुरक्षा का लाभ देना ग़लत था और मुंबई हाईकोर्ट नागपुर खंडपीठ का 2015 का पूरा पीठ (फुल बेंच) निर्णय रद्द कर दिया। यह फैसला संकेत देता है कि वोट-बैंक की राजनीति और जातीय तुष्टिकरण के लिए शासन द्वारा लिए गए निर्णय अनुचित थे।
फिर भी शासन ने समय-समय पर नकली आदिवासियों को सेवासुरक्षा देने वाले निर्णय लिए। 2019 में अदालत ने इन्हें खारिज कर हज़ारों नकली कर्मचारियों को सेवा से हटाने का आदेश दिया, परंतु रिक्त पद आज तक नहीं भरे गए।
संविधान ने अनुसूचित जनजातियों के लिए शिक्षा व नौकरी में 7.5% आरक्षण दिया है। मगर आदिवासी समाज में शिक्षा का स्तर बहुत ही कम है। 1981 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र में 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ने की दर 90.55% थी और केवल 9% आदिवासी ही 12वीं या उससे ऊपर की शिक्षा पाते थे। आज कुछ सुधार हुआ है, लेकिन क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं हुआ।
उधर, कोष्टी, राजपूत, मन्नेवार, धनगर, कोली, कुणबी, कलार, मुस्लिम आदि जातियों ने नाम-साम्यता का फायदा उठाकर नकली प्रमाणपत्र हासिल किए और आरक्षण का लाभ उठाया। ये लोग वर्षों तक जाति-पड़ताल टालते रहे, स्थगन आदेश लेते रहे और सरकारी तंत्र से मिलकर सेवा पूरी करते रहे।
इस बीच बाबुराव मडावी, नेताजी राजगडकर, सुखदेवबाबा उईके जैसे नेताओं और डॉ. गोविंद गारे जैसे अधिकारियों ने लड़ाई छेड़ी। 2001 में जाति-पड़ताल कानून बना, लेकिन अदालतों में हज़ारों याचिकाएँ आज भी लंबित हैं।
न्यायालयों ने मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए नकली आदिवासियों को भी सेवासुरक्षा दी। सुप्रीम कोर्ट के मिलींद कटवारे (2000) और कविता सोलंकी (2012) के फैसलों का हवाला लेकर कई नियुक्तियाँ सुरक्षित रखी गईं। 2010 में केंद्र सरकार ने भी गैर-आदिवासियों को सेवासुरक्षा दी।
2017 में बहिरा प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा कि सेवासुरक्षा नहीं दी जा सकती। लेकिन बाद में चैतन्या पालेकर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से नरमी दिखाकर ग़लत संदेश दिया।
राज्य में नकली आदिवासियों की संख्या लाखों में है। अनुसूचित जनजाति आरक्षण में 50% से अधिक सेंधमारी हुई है। आदिवासी समाज के पास 26 विधायक और 3 सांसद हैं, मगर नेतृत्व की निष्क्रियता से समाज आज भी अधिकारों के लिए संघर्षरत है।
सरकारें आदिवासियों की मूल समस्याओं पर कभी गंभीर नहीं हुईं। आश्रमशालाओं का भ्रष्टाचार, वसतिगृह, कुपोषण, विस्थापन, पेसा कानून का अमल, रोजगार, नक्सलवाद, महिला शोषण, जाति प्रमाणपत्र, समिति में रिक्त पद, लंबित मामले– इन मुद्दों पर न तो विधानमंडल और न संसद में गंभीर चर्चा हुई।
आदिवासी नेतृत्व की कमजोरी और शासन की असंवेदनशीलता के चलते आदिवासी समाज बार-बार ठगा गया है। अदालतों ने भी मानवीय दृष्टिकोण के नाम पर असली आदिवासियों के आरक्षण को ही खोखला कर दिया है।
लोकशाही शासन प्रणाली अपनाने वाले भारत में आदिवासियों का “जल-जंगल-ज़मीन” छिन गया। लाखों करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद आदिवासी क्षेत्र विकास से वंचित रहे।
आज भी आदिवासी 58.96% साक्षरता दर (2011) के साथ पिछड़े हैं। शासन और न्यायालय यदि लगातार उनकी उपेक्षा करेंगे, तो ऐसे हालात में गढ़चिरोली के जंगल में कोई आदिवासी ‘गोंगलू’ बंदूक उठाकर खड़ा हो जाए, और सरकार को उस पर 8 लाख का इनाम घोषित करना पड़े– तो यह व्यवस्था की असफलता ही कहलाएगी।
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