जसिंता केरकेट्टा की कविता में मरती हुई सभ्यता का दृश्य
Dr. Dilip Girhe
सभ्यताओं के मरने की बारी।
ऑक्सीजन की कमी से
बहुत-सी नदियाँ मर गई
पर किसी ने ध्यान नहीं दिया
कि उनकी लाशें तैर रही हैं
मरे हुए पानी में अब भी
नदी की लाश के ऊपर
आदमी की लाश डाल देने से
किसी के अपराध पानी में घुल नहीं जाते
वे सब पानी में तैरते रहते हैं
जैसे नदी के साथ
आदमी की लाशें तैर रही हैं
मरे हुए पानी में अब भी
एक दिन जब सारी नदियाँ
मर जाएँगी ऑक्सीजन की कमी से
तब मरी हुई नदियों में तैरती मिलेंगी
सभ्यताओं की लाशें भी
नदियाँ ही जानती हैं
उनके मरने के बाद आती है
सभ्यताओं के मरने की बारी।
-जसिंता केरकेट्टा
काव्य संवेदना:
आज पर्यावरण के सभी घटक खतरे में है। क्योंकि भूमंडलीकरण ने अपना सिर इतना ऊपर किया है जो कि नीचे झूकने का नाम ही नहीं ले रहा है। इस के चलते आज सभी प्राकृतिक सभ्यताओं की मरने के बारी आ गई है। इन जैसे नैसर्गिक चित्रों को कवयित्री जसिंता केरकेट्टा अपनी कविता में वर्णन करती है। आज प्रकृति के सानिध्य में हर एक जीव-जंतु को ऑक्सीजन की कमी महसूस हो रही है। वह जीव ऑक्सीजन के लिए तरस खा रहा है। बहुत सी नदियां मानव प्रजाति ने दूषित करने के कारण उसकी नैसर्गिकता खत्म हो गई। आज उन नदियों में मनुष्य की लाशें मिल रही है। पहले से ही नदी प्रदूषित हो गई और उसमें आज लाशों के ढ़ेर मिल रहे हैं। नदी में नहाने से किसी के अपराध तो कम नहीं होते बल्कि वह नदी और भी प्रदूषित हो जाती है। कवयित्री कहना चाहती है कि जब यह नदियां स्वयं ही ऑक्सीजन से मर जाएगी तो इसमें नहाने या तैरने वाली सभ्यताओं की लाशों का भी अपने आप खात्मा हो जाएगा। इसके बाद अपने आप सभ्यताओं की मरने की बारी आ जायेगी। इस प्रकार से कवयित्री सभ्यताओं के मरने की बारी का जीवंत उदाहरण अपनी कविता में देती है।
2 टिप्पणियां:
Very nice sir
धन्यवाद😊
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