बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

बाबाराव मड़ावी की बिरसा कविता में जनचेतनात्मक आक्रोश -Birsa Kavita-Babarav Madavi

 

बाबाराव मड़ावी की बिरसा कविता में जनचेतनात्मक आक्रोश

-Dr. Dilip Girhe

बिरसा

बिरसा तेरा विद्रोह 

लंगोट पहनने वाले 

आदिमों की स्वतंत्रता के लिए ।


मनुवादी विचारों पर 

नंगे पैरों से 

चलने वाले लोग 

बिना छाते के 

तेज धूप में जल रहे हैं।


आदिमों की जिंदगी पर 

हमले करने से-

जंगलों में अँधेरा 

छा गया।


तुम खींचते गए 

धनुष की डोर 

और आक्रोश फैलता गया 

चारों दिशाओं की ओर !


तुम्हारी ये गर्जना 

मुझ पर क्या निगाहें रखेंगी 

मैं छिन्न-विछिन्न

कर दूंगा-

इस धरती को 

हिला दूंगा 

अपने लोगों की मुक्ति के लिए ।


तूने छेड़ा है 

जंगलों में रहने वाले 

आदिम मनुष्य का महासंग्राम ।


इस कारण 

उठ कर खड़े हुए 

भूखे जीवों की 

हड्डियों के कंकाल !


बिरसा 

हर एक पत्थर पर 

तेरा ही नाम 

ढूँढ़ रहा हूँ तेरे जंगल के गाँव 

तड़पते हुए जीवों का यह जंगल 

फिर से लायेगा एक बार उलगुलान !

-बाबाराव मड़ावी

काव्य संवेदना:

कविता “बिरसा” आदिवासी चेतना और प्रतिरोध की एक सशक्त अभिव्यक्ति है। कवि ने इसमें झारखंड के महान जननायक बिरसा मुंडा को प्रतीक बनाकर आदिवासी समाज की स्वाधीनता, अस्मिता और संघर्ष की भावना का स्वर मुखर किया है। यह कविता आदिवासी साहित्य की उस परंपरा में आती है जो प्रकृति, श्रम और प्रतिरोध के आधार पर नई मानवीय दृष्टि प्रस्तुत करती है।

“बिरसा तेरा विद्रोह लंगोट पहनने वाले आदिमों की स्वतंत्रता के लिए।”

यह पंक्ति सीधे आदिवासी स्वाभिमान और आत्मगौरव को उद्घाटित करती है। “लंगोट पहनने वाले आदिम”—यह वाक्य आदिवासी जीवन संघर्ष और श्रमशीलता का प्रतीक है। कवि यह भी प्रस्तुत करता है कि जिन लोगों को “आदिम” कहकर सभ्य समाज ने नीचा दिखाया, वास्तव में वही लोग स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए लड़े दिखाई पड़ते हैं। साथ ही यह कविता आदिवासी साहित्य के उस स्वर को मुखरित करती है जिसमें सभ्यता और प्रकृति की विरासत दिखाई देती है। इस प्रकार से इस कविता के माध्यम से हम कह सकते हैं कि यह विद्रोह किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय के मुक्ति-संघर्ष का प्रतीक है।

“मनुवादी विचारों पर नंगे पैरों से चलने वाले लोग बिना छाते के तेज धूप में जल रहे हैं।”

यह पंक्तियाँ समाज के मनुवादी और जातिवादी ढाँचे की आलोचना करती हैं। “नंगे पाँव” और “तेज धूप में जलना” यह शोषण और असमानता का रूपक है। यहाँ पर कवि कहना चाहते हैं कि आदिवासी समाज आज भी उन्हीं सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अन्यायों से झूज रहा है जिनके विरुद्ध बिरसा ने आवाज़ उठाई थी। यहाँ “मनुवादी विचार” शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक हैं, जो आदिवासी और श्रमिक वर्ग को हाशिए पर रखता हुआ मिलता है। इसीलिए आदिवासी हमेशा कहता आया है कि “अब राज हमारी ज़मीन पर किसी और का नहीं चलेगा।”

“आदिमों की जिंदगी पर हमले करने से जंगलों में अँधेरा छा गया।”

“जंगलों में अँधेरा” यहाँ सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संकट का प्रतीक है। बिरसा के समय में अंग्रेजों ने आदिवासियों से जंगलों और ज़मीनों का अधिकार छीन लिया था। जंगल उनके जीवन और देवता थे—उसे नष्ट या खत्म करना उनके अस्तित्व पर हमला करने जैसा था। इसमें कवि ने उस विस्थापन और दर्द को अत्यंत प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त किया है। जो आज भी आदिवासी समाज झेलना पड़ रहा है।

“तुम खींचते गए धनुष की डोर और आक्रोश फैलता गया चारों दिशाओं की ओर।”

यह पंक्ति “उलगुलान” की ओर सीधा संकेत करती है। “धनुष की डोर” यहाँ संघर्ष की तैयारी और प्रतिरोध की एकाग्रता का प्रतीक है। बिरसा के नेतृत्व में जो आंदोलन उठा, वह केवल हथियारों का नहीं बल्कि चेतना का उलगुलान था। आदिवासी समाज को अपनी शक्ति का बोध कराने वाला उलगुलान था। यह भावना बिरसा के उलगुलान में हर बार झलकती है। 

“मैं छिन्न-विछिन्न कर दूंगा इस धरती को, हिला दूंगा अपने लोगों की मुक्ति के लिए।”

यहाँ कवि ने बिरसा के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को “धरती को हिला देने वाली शक्ति” के रूप में प्रस्तुत किया है। यह आक्रोश केवल बाहरी सत्ता के विरुद्ध नहीं, बल्कि अन्याय, अंधविश्वास और आत्महीनता के विरुद्ध भी है। कविता की यह पंक्ति जन-क्रांति की तीव्रता और चेतना की गहराई दोनों दर्शाती है। यह वही स्वर है जो आधुनिक आदिवासी कविता में “प्रतिरोध की पहचान” बन गया है।

“उठ कर खड़े हुए भूखे जीवों की हड्डियों के कंकाल।”

यह पंक्ति आदिवासी समाज की भूख, गरीबी और लाचारी को यथार्थ रूप में सामने लाती है। लेकिन ये “कंकाल” केवल मृत नहीं —बल्कि उठ खड़े हो रहे हैं, विद्रोह कर रहे हैं। यानी “मुक्ति की भूख” अब “विद्रोह की ज्वाला” बन चुकी है।

“हर एक पत्थर पर तेरा ही नाम ढूँढ़ रहा हूँ… तड़पते हुए जीवों का यह जंगल फिर से लायेगा एक बार उलगुलान।”

यह अंतिम पंक्तियाँ आशा और पुनर्जागरण का संदेश देती हैं। कवि कहता है कि बिरसा अब इतिहास नहीं, जीवित चेतना हैं।उनका नाम हर पत्थर, हर जंगल, हर संघर्ष में बस गया है। “फिर से लायेगा एक बार उलगुलान”—यह केवल स्मरण नहीं, बल्कि एक भविष्य-दृष्टि है—एक बार फिर यह धरती अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाएगी। यहाँ कवि ने बिरसा को मिथक से जन-शक्ति में रूपांतरित कर दिया है।

निष्कर्ष रूम में प्रस्तुत कविता के माध्यम से हम कह सकते हैं कि “बिरसा” आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा की स्मृति में रची गई एक जनचेतनात्मक रचना है। इसमें आदिवासी जीवन के दुख, संघर्ष और स्वाधिकार की आकांक्षा का समग्र चित्रण हुआ है। यह कविता आदिवासी साहित्य की उस परंपरा को आगे बढ़ाती है जो कहती है—"जंगल हमारा है, धरती हमारी है, और हम ही उसके सच्चे रक्षक है।" कविता का स्वरूप आदिवासी प्रतिरोध एवं जनचेतना की कविता मुख्य प्रतीक जंगल, धनुष, अंधेरा, कंकाल, उलगुलान विचारधारा शोषण-विरोध, स्वाधिकार, अस्मिता, ऐतिहासिक सन्दर्भ, बिरसा मुंडा का उलगुलान संदेश संघर्ष ही मुक्ति है।

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