सोमवार, 18 मार्च 2024

हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष Hindi Aur Marathi Aadiwasi Kavitaon Mein Jivan Sanghrsh



हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष

                                              -डॉ. दिलीप गिऱ्हे 

सन् 2000 के बाद हिंदी और मराठी कविताओं में आदिवासी जीवन-संघर्ष को प्रस्तुत करने वाले प्रमुख हिंदी कवियों में, डॉ. रामदयाल मुंडा, ग्रेस कुजूर, सरितासिंह बड़ाईक, निर्मला पुतुल,  वंदना टेटे, महादेव टोपो,ओली मिंज,ज्योति लकड़ा, ओलाका कुजूर, जसिन्ता केरकट्टा, रोज केरकट्टा, सरोज केरकट्टा, नितिशा खलखो, ग्लेडसन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदित्य कुमार मांडी  आदि प्रमुख हैं। मराठी कवियों में डॉ. गोविंद गारे, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, डॉ. विनायक तुमराम, डॉ.गोविंद गारे, उषाकिरण आत्राम, सुखदेव बाबु उईके, प्रा. वामन शेडमाके, चमुलाल राठवा, प्रा. माधव सरकुंडे, दशरथ मडावी, बाबाराव मडावी, सुनील कुमरे, विनोद कुमरे, डॉ. संजय लोहकरे,मारोती उईके, कृष्णकुमार चांदेकर, वसंत कन्नाके, आदि प्रमुख हैं। प्रस्तुत शोध विषय में हिंदी और मराठी के उन कवियों के ही कविता संग्रहों को लिया जाएगा जिनके कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हिंदी में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख’, निर्मला पुतुल का ‘बेघर सपने’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा’, सं. रमणिका गुप्ता का ‘कलम को तीर होने दो’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा’, आदित्य कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल फूल’, सं. हरिराम मीणा का ‘समकालीन आदिवासी कविता’ ओली मिंज का ‘सरई’ आदि कविता संकलन महत्वपूर्ण हैं| मराठी में उषाकिरण आत्राम का ‘लेखणीच्या तलवारी’, वसंत कन्नाके का ‘सुक्का सुकूम, सं. प्रा.डॉ.विनायक तुमराम का ‘शतकातील आदिवासी कविता’, वाहरु सोनवणे का ‘गोधड’, भुजंग मेश्राम का ‘अभुज माड़’, बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’, मोरोती उईके का ‘गोंडवनातला आक्रंद’, विनोद कुमरे का ‘आगाजा’, माधव सरकुंडे के ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ एवं ‘चेहरा हरवलेली माणसं’, डॉ. संजय लोहकरे का ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश’ आदि प्रमुख हैं।

हिंदी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष:

हिंदी आदिवासी कवियों में डॉ.रामदयाल मुंडा आदिवासी जनमानस के पुत्र माने जाते है। वे छोटी-छोटी कविताएँ  लिखते थे। लेकिन उनकी कविताओं की खूबी यह मानी जाती हैं कि वे मानवीय प्रेम, मूल्य तथा विकृतियों की अभिव्यक्ति बड़ी खूबी से प्रकृति या पशु-पक्षियों के प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते है। प्रेम का रिश्ता उनकी कविता में जंगल-पेड़-तीतर के माध्यम से अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता हैं। दूसरी ओर महादेव टोपो की कविताओं में इस देश की समाज व्यवस्था को बदलने के लिए ‘जंग लगे तीरों पर नई धार लाने का गीत’ गाते है। वह आदिवासी समाज की दुर्दशा एवं उनकी व्यथा, आदिवासी समाज में अज्ञानता तथा अशिक्षा के कारण फैले अंधकार को कविताओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं। मुंडारी भाषा के सशक्त युवा कवि ‘अनुज लुगुन’ हिंदी कविता लिखते है। उनकी  कविताओं में पुरे देश का आदिवासी इतिहास झांकता है, उनकी कविताओं में इतिहास है, संस्कृति है, उत्साह है, उम्मीद है, संकल्प है हक्क और हौसला है। दूसरी ओर निर्मला पुतुल हमें बाजारवाद के खतरों से अवगत कराती है, वह स्त्री-जीवन की सूक्ष्मताओं, विद्रूपताओं, त्रासदियों को भी उकेरती है। आदिवासी जीवन के जड़ों तक जाकर उसकी जीवन शैली, सामूहिकता, संस्कृति, भाषा एवं शैली अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं। हिंदी कविताओं में सन् 2000 के बाद की कविताओं में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख’, निर्मला पुतुल का ‘बेघर सपने’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा’, सं. रमणिका गुप्ता का ‘कलम को तीर होने दो’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा’, आदित्य कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल फूल’, सं. हरिराम मीणा का ‘समकालीन आदिवासी कविता’ आदि कविता संकलन महत्वपूर्ण  हैं।

सरितासिंह बडाईक यह नागपुरियां भाषा की कवयित्री है इन्होंने नागपुरियां और हिंदी भाषा में ‘नन्हें सपनों का सुख’ यह कविता संग्रह लिखा है। वह इस कविता संग्रह में लिखती हैं कि कविताओं में व्यक्तिगत कुंठा न होकर झारखण्ड के आदिवासियों क सच हैं। इस देश के हर एक नन्हें की क्या सपने हैं? नन्हीं नन्हीं क्या अपेक्षाएं हैं? बड़ी बड़ी मजबूरियां क्या हैं? इन सभी प्रश्नों पर उनकी कविताएँ सवाल खड़ा करती हैं। प्रकाशन की दृष्टि से यह कविता संकलन हिंदी कविताओं में प्रथम कविता संकलन माना जायेगा। उनकी कविताएँ गीतों की गेयता से कदम-ताल करती हुई दिखाई देती हैं। ‘जतरा’ कविता में वह एक बच्ची की मेले में जाने की जिज्ञासा और आकांक्षा का मनोविज्ञान प्रस्तुत करती है। ‘मोरपंखी’ कविता में वह झारखण्ड का ग्रामीण परिवेश को सामने लाती है। दूसरी ओर औरतों को भोग का वस्तू बनाने से नकारने वाली कविता ‘तकियां और ‘मैं क्या हूँ’ यह हैं। ‘करमी’, ‘घासवाली’, ‘फगनी’, ‘सुगिया’ यह कविताएँ तो भिन्न-भिन्न परिवेश की कथाएँ, समाज और व्यवस्था से जवाब मांगनेवाली हैं। सरितासिंह बड़ाईक जी ऐसे आदिवासी समाज से आती है जिसका अस्त्तित्व आज हमें अँधेरें में दिखाई दे रहा है। उन्होंने अपने वाणी को कागज पर अभिव्यक्ति के लिए आर्यभाषा की एक बोली नागपुरियां भाषा को एक माध्यम बनाया है।

दूसरी ओर हरिराम मीणा भी अपनी संपादित किताब ‘समकालीन आदिवासी कविता’ में वह कहते हैं कि-“कविता के मुख्य रूप से चार तत्व होते हैं यथा स्त्रोत, शब्द, शिल्प और संदेश। इन्हीं तत्वों को लेकर कविता अपनी अभिव्यक्ति करती है।” वह आदिवासी कविताओं के विश्लेषण के बारें में कहते हैं कि आदिवासी जीवन का गहन अनुभव, विषयानुरूप भाषा का मुहावरा, सम्प्रेषनियता और प्रकृति तथा मानवता के सुख-दुःख में शामिल होने की प्रेरणा आदि बातें सामने आएगी। इस कविता संकलन में अनुज लुगुन की ‘हमारी अर्थी शाही हो नही सकती’, ग्रेस कुजूर की ‘हे समय के पहरेदारों’, निर्मला पुतुल की ‘संथाली लड़कियों के बारे में कहा गया हैं’, भुजंग मेश्राम की ‘ओ मेरे बिरसा’, मंजु ज्योत्स्ना की ‘विस्थापित का दर्द’, भुवनलाल सोरी की ‘उजाले की तलाश में’, महादेव टोप्पो की ‘फिर भी हम कहते है तुम्हें जोहार’, वाहरु सोनवणे की ‘मेधा और आदिवासी’, हरिराम मीणा की ‘आदिवासी और यह दौर’ इन सभी कविताओं में आदिवासी अस्तित्व का संकट, प्रस्थापित व्यवस्था के प्रति आदिवासियों का विद्रोह, आदिवासियों का होता हुआ शोषण, जल, जंगल और जमीन का प्रश्न इन सभी बातों पर यह कविताएँ अपनी चिंता व्यक्त करती हैं।

‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ इस कविता संग्रह से लोकप्रियता पानेवाली कवयित्री निर्मला पुतुल है। ‘बेघर सपने’ यह उनका एक नया कविता संग्रह है। वह एक ऐसी कवयित्री है जिन्होंने दो अस्मिताओं को जबरदस्त रूप में उठाया हैं।  जिसमें आदिवासी और स्त्री संघर्ष प्रमुख हैं। बेघर सपने इस कविता संग्रह की कविताओं में ‘मिटा पाओगे सबकुछ’ ‘समाज’, ‘वेश्या’,‘आखिर कहे तो किसे कहें’, ‘औरत’,‘आखिर कब तक’ ऐसी कई कविताओं में आदिवासियों का संघर्षरत इतिहास और अंधकारमय जीवन दिखाई देता हैं। उनके कविताओं को बहुत ही करीबी से देखा जाए तो उसमे वेदना और प्रतिकार का रूप दिखाई देता है।  वंदना टेटे ‘कोनजोगा’ इस कविता संग्रह के भूमिका में लिखती हैं कि-“साहित्य मतलब किताबी विधाएं नहीं। हम आदिवासियों के लिए साहित्य का मतलब हैं नाचना-गाना, बजाना, परफोर्म करना और कहानियाँ, गीत-कविताएँ सिरजना।” उनकी कविताओं में ‘प्रकृति प्रेम’ झलकता हुआ दिखाई देता है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-झरनें, चाँद-तारें, असमान में सूरज इन जैसे कई प्रकृति के उपादान उनकी कविताओं में दिखाई देते हैं।  रमणिका गुप्ता ने  झारखण्ड के 17 कवियों की चुनी हुई कविताओं का संकलन ‘कलम को तीर होने दो’ यह निकाला है। इस कविता संग्रह में रामदयाल मुंडा, अनुज लुगुन, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्पो, ओली मिंज, ज्योति लकड़ा, आलोका कुजूर, जसिंता केरकेट्टा, नीतिशा खलखों,निर्मला पुतुल, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, रोज केरकेट्टा, सरोज केरकेट्टा, ग्लेडसन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, सरितासिंह बड़ाईक, आदि कवियों की कविताएँ हैं। इन सभी कवियों की कविताओं में मानवीय मूल्यों की पहचान, आदिवासी जीवन शैली, और साथ ही स्वतंत्रता, समता, और बंधुता का भाव दिखाई देता हैं।  

डॉ.भगवान गव्हाड़े ने ‘आदिवासी मोर्चा’ इस कविता संग्रह में उलगुलान, वैश्वीकरण की असली शक्त, आदिवासी संस्कृति, आदिवासी मोर्चा, किसान, संचारमाध्यम, अपने जंगल की तलाश, औरत, भारत का वर्तमान, राजधानी, जैसी कविताओं में आदिवासी समाज का पारिवारिक जीवन, आदिवासी संस्कृति, भूमंडलीकरण का आदिवासी जीवन पर होने वाला परिणाम, किसान जीवन, जल, जंगल, और जमीन के प्रश्न, भारत का भविष्य क्या होगा? ऐसे तमाम सारें मुद्दों को लेकर सवाल उठायें हैं। तो आदित्य कुमार मांडी ने ‘पहाड़ पर हूल फूल’ इस कविता संग्रह में कारगिल लढाई, कौन गोलिचलाता है, मानवता, समानता, खामोश क्यों? जमीन, मैं माओवादी नही हूँ, गरिबी, इंसानियत, भाषा मैं आजाद हूँ। इन जैसी कविताओं में नक्सलवादी कौन है? आदिवासी कुपोषण का शिकार क्यों बना? ऐसे महत्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। ओली मिंज जी ‘सरई’ इस कविता संग्रह में -शायद मैं आदमी हूँ, जोहार, बाजार, सरई, मंजिल भी क्या चुनी, धर्म का मर्म, आदिवासी, साड़ी गुटनों तक, बदलाव का दौर, झारखण्ड की धरती, कुदरत का रिवाज ऐसी कविताएँ लिखकर वह आदिवासी धर्म? महिलाओं का बाजारीकरण? झारखण्ड की प्राकृतिक उपदा इन जैसे कई मुद्दों को वह कविताओं के माध्यम से सामने लाते हैं।

मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष:

मराठी आदिवासी कविताओं में आदमियता की खोज दिखाई देती है। इस साहित्य से यह पता चलता है कि आदिवासी साहित्य आर्य संस्कृति और आदिम संस्कृति के संघर्ष की पहचान है। पूंजीपति, साहूकार और जमींदारों ने आज तक आदिवासियों का शोषण ही किया हैं।  आर्य-संस्कृति वर्णवाद के पैर तले रौदती आई इसी कारण आदिवासी संस्कृति आर्य-संस्कृति का तीखा विरोध करती है।  वर्तमान समय में आदिवासियों पर हो रहें अन्याय-अत्याचार पर प्रहार करते हुए भुजंग मेश्राम लिखते हैं कि “सुबह के चाय के साथ-साथ आज हर दिन आदिवासियों की उत्पीडन की खबरे सामने आ रही हैं।” इसलिए आज आदिवासी समाज की जिंदगी महँगी हो गई हैं। आदिवासियों का दर्द इस व्यवस्था की उपज है। यह सोचकर आदिवासी कवि कविता को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उनकी कविता एक क्षेपणास्त्र की तरह टूट पड़ती है। प्रा. वामन शेडमाके की कविताओं में साहूकारी शोषण दिखाई देता है। वह कहते हैं कि साहूकार ‘कम दाम और ज्यादा काम’ इस नीति से आदिवासियों का शोषण करते हैं।  उषाकिरण आत्राम की कविताओं में जुझारू पण दिखाई देता है वे कहती हैं कि “हम कब तक अन्याय-अत्याचार सहते रहेंगे जो लोग हमपर जिस शस्त्रों से वार कर रहे हैं उनके ही  शस्त्रों से हम उन्हें सबक सिखायेगें।”  इसी तरह से मराठी आदिवासी कविताओं में एहसास दिखाई देता हैं युग संवेदना को वाणी देने वाली यह कविता अपनी आंचलिक संस्कृति को स्पष्ट कराती हैं।  

          मराठी आदिवासी कविताओं में कवि वसंत कनाके का ‘सुक्का सुकूम’ यह कविता संग्रह ‘आदिवासी अस्मिता’ का मुखपत्र माना जाता है। क्योंकि आदिवासी समाज की जीवन अनुभूति और उनकी वेदना को रेखांकित करने वाला यह कविता संकलन है। कोलामी भाषा में ‘सुक्का’ का अर्थ ‘तारें’ हैं। और ‘सुकूम’ का अर्थ है ‘तारका’। आज आदिवासियों के हक़ और अधिकारों का हनन हो रहा हैं। कवि वसंत कनाके उनकी कविताओं में विद्रोह का स्वर दिखाते है। यह उनका पहला कविता संग्रह है उनकी कविताओं में- ट्राइब टायगर, आरक्षण, शोषण, अन्याय, गुलाम, षड्द्यंत्र, भ्रष्टाचार, इन जैसी कविताएँ ‘आदिवासी अस्मिता’ के ऊपर अपनी बात रखती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासियों का धर्म, उनका जीवन, उनको नक्सली घोषित करना, उनकी गरीबी, उनकी अस्मिता, उनकी भाषा, उनका विकास, भ्रष्टाचारी शासन व्यवस्था आदि मुद्दों पर उनकी कविता विचार विमर्श करती हैं। मराठी आदिवासी साहित्य में कलम को तलवार बनाने वाली कवयित्री ‘उषाकिरण आत्राम’ है। उनका ‘लेखनीच्या तलवारी’ यह चौथा कविता संग्रह हैं। उनकी कविताओं में दुःख, वेदना, अन्याय-अत्याचार और शोषण के खिलाफ एल्गार पुकारा गया हैं। उनकी कविताएँ हाशिए के समाज के विविध प्रश्नों पर सवाल खड़े करती हैं। कवि प्रा. विनायक तुमराम इन्होंने मराठी आदिवासी साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन करकर कई पुस्तके लिखी हैं। मराठी के सभी आदिवासी कवियों की कविताओं को संकलित करकें ‘शतकातील आदिवासी कविता’ यह कविता संग्रह प्रकाशित किया है। इस कविता संग्रह में 22 कवियों की कविताएँ हैं। वह कहते हैं कि-“जंगल से लेकर पर्वत तक, पर्वत से लेकर गाँव तक ऐसा विशाल जीवन जिने वाला आदिवासी समाज है।” उनकी कविताएँ आदिवासियों का दुःख, उनकी भावनाएं, उनकी इच्छा एवं आकांक्षाएँ, उनके विविध प्रश्न और समस्याएं, उनका इतिहास, उनकी भाषा, इन सभी बातों का दर्शन कराती  हैं। सामंतवादी व्यवस्था पर अपनी कलम को तेज प्रहार करने वाला कवि वाहरु सोनवणे है।  वह पिछले 32 साल से आदिवासियों के जनांदोलनों से जुड़े है। उन्होंने सन् 1972 में ‘श्रमिक संघटन’ स्थापन किया। इस  संघटन के माध्यम से वह मजदूर वर्ग और आदिवासियों के हक़ और अधिकार के लिए आज भी संघर्ष कर रहे है। आदिवासी साहित्य आंदोलन और आदिवासी एकता परिषद के माध्यम से वह कई राज्यों में साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे है। उनका ‘गोधड’ यह पहला कविता संग्रह है। जिसे हम हिंदी में ‘रजाई’ कहते है। वह कहते हैं कि ‘गोधड’ यह कई प्रकार की हो सकती हैं जैसे- मुलायम, आलीशान। लेकिन मेरी जो गोधड है वह सभी तरह से फटी हुई हैं।  रात में सोते समय मेरी गोधड से चाँद और तारें दिखते हैं। मेरे आंदोलन में का सहभागी अम्बरदादा इस फटी हुई गोधडी में पलता गया।  गोधड बनाने के लिए कई सारें फटे हुए रंगों के कपडे की जिस तरह से जरूरत होती हैं। उसी तरह से उनकी कविताओं में भी आदिवासियों का फटा हुआ या विस्थापित (बिखरा हुआ) जीवन दिखाई देता हैं। वह ‘स्टेज’ जैसी कविताओं के माध्यम से कहते हैं कि-“हमारी समस्या को हमें ही कहने दें। आदिवासियों में नेतृत्व का गुण विकसित होने दें। नेतृत्व का गुण सीखने में गलतियाँ होगीं। गलती करने पर ही तो हम सीखेंगे। अपने जीवन के मुलभुत प्रश्नों को हम ही कहेंगे।” दूसरी ओर भुजंग मेश्राम ‘अभुज माड़’ इस कविता संग्रह में ‘अभुज माडिया’ इस आदिवासी समाज का वर्णन करते हैं। अबूझ माड़ यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के बस्तर का बहुत ही पिछड़ा क्षेत्र है। नारायणपुर जिले से कुछ ही दूरी पर स्थित है। यहाँ पर अभुज माडिया यह आदिवासी समूह वास्तव्य करता हैं। इस जनजाति का संस्कृति, अस्मिता और भाषा को कवि भुजंग मेश्राम ने स्पष्ट किया हैं। बाबाराव मडावी के ‘पाखरं’(हिंदी में पंछी) इस कविता संग्रह में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए एक नयी विचारधारा हैं। आदिम समाज की अवस्था तथा उनकी क्रांति की दिशाएं इस कविता संग्रह में दिखाई देती है। समाज में जी रहें लोगों के जीवन में अँधेरा ख़त्म करके नई रोशनी, नया उजाला लाने की बात इस कविता संग्रह की कविताएँ करती हैं।  मारोती उईके का ‘गोंडवनातला आक्रंद’ यह कविता संकलन है। इसमें कवि ने गोंडवाना क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा किया गया आक्रोश दिखाया हैं। उनकी कविताओं में भारतीय समाज व्यवस्था का चित्र, सरकार की शासन निति, आदिवासियों का आर्थिक जीवन, उनका धार्मिक जीवन, उनकी संस्कृति, शहीद आदिवासी क्रांतिकारकों के इतिहास की पहचान ही उनकी कविताओं की विशिष्टता हैं। विनोद कुमरे ने ‘आगाजा’ इस कविता संग्रह में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ क्या क्या चुनौति है यह बताया है।  आगाजा यह गोंडी भाषा का शब्द है जिसका हिंदी अर्थ ‘चुनौति’ है।  कवि की घोषणा ही शोषण के खिलाफ एक बड़ी चुनौति है। चंद्रकांत पाटील के शब्दों में “आदिवासी कविता विस्थापितों के वेदना की कविता हैं।” प्रा. माधव सरकुंडे ने ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ और ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ यह दोनों कविता संग्रह में आदिवासी समाज पर जो प्रस्तापित समाज शोषण कर रहा हैं उनके खिलाफ कवि अपनी कलम को तीर बनाकर आदिवासी समाज को जागृत करते हैं। वह कहते हैं कि मैंने अब कारागृह का द्वार तोड़ दिया है मैं अब आझाद हो गया हूँ। ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ इस कविता संग्रह में से आदिम मित्रांनो, दगा, भेदभाव, बेड्या, बिरसा, पुस्तके, मेलेल्या मनाचा समाज, भूमिका, चीड, तिलका मांझी, जगण्याच सूत्र, युद्ध अटळ आहे, इन जैसी कविताएँ मेरे आझादी का सबूत पेश करती हैं। डॉ. संजय लोहकरे ने ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश’ इस कविता संग्रह में यह बताने की कोशिस की हैं कि आज के लोकतांत्रिक देश में भूख से बेजान आदिवासी समाज की  किस तरह नीलामी चल रही हैं। एक तरफ उनके जल, जंगल और जमीन को लुटा जा रहा हैं और दूसरी तरफ भरें बाजार में उनकी नीलामी चल रहीं हैं। कवि डॉ. संजय लोहकरे आदिवासियों में बिरसा मुंडा, रोबिहुड तंटयामामा भिल्ल, क्रांतिवीर रागोजी भांगरे, वीरांगना राणी दुर्गावती, और शांति के प्रणेता भगवान गौतम बुद्ध, इनके स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनों को कविताओं के माध्यम से जनता के सामने लाते हैं। और उनके विचारों से आदिवासियों को प्रेरित कराते हैं।

          इस प्रकार हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में बहुत ही संघर्षमय जीवन आदिवासी समाज का झलकता हुआ दिखाई देता हैं।

संदर्भ ग्रंथ सूची:

आधार ग्रंथ: (हिंदी कविता संग्रह )

1. सरिता बड़ाईक, नन्हें सपनों का सुख, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली,2013

2. सं. हरिराम मीणा, समकालीन आदिवासी कविता, अलख प्रकाशन, जयपुर,2013

3. निर्मला पुतुल, बेघर सपने, आधार प्रकाशन पंचकूला, हरियाणा,2014

4. वंदना टेटे, कोनजोगा, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची झारखण्ड,2015

5. सं. रमणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो (झारखण्ड के आदिवासी हिंदी कवि), वाणी प्रकाशन, नई   दिल्ली,2015

6. डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदिवासी मोर्चा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2015

7. आदित्य कुमार मांडी, पहाड़ पर हल फूल, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची झारखण्ड,2015

8. ओली मिंज, सरई, सारिका प्रेस एंड प्रोसेस, डोरंडा, झारखंड-2015

आधार ग्रंथ: ( मराठी कविता संग्रह )

1. उषाकिरण आत्राम, लेखणीच्या तलवारी, हरिवंश प्रकाशन, चंद्रपूर, 2009

2. वसंत कनाके, सुक्का सुकूम, लोकायन प्रकाशन, यवतमाळ, 2002

3. सं. प्रा. डॉ. विनायक तुमराम, शतकातील आदिवासी कविता, हरिवंश प्रकाशन, चंद्रपूर, 2003

4. वाहरू सोनवणे, गोधड, सुगावा प्रकाशन, पुणे, 2006

5. भुजंग मेश्राम, अभुज माड, लोकवाङ्मय गृह, मुंबई, 2008

6. बाबाराव मडावी, पाखरं, प्रियंका प्रकाशन, यवतमाळ, 2009   

7. मारोती उईके, गोंडवनातला आक्रंद, उलगुलान प्रकाशन, वर्धा, 2010

8. विनोद कुमरे, आगाजा, लोकवाङ्मय गृह, मुंबई, 2014

9. माधव सरकुंडे, मी तोडले तुरुंगाचे दार, देवयानी प्रकाशन, यवतमाळ, 2011

10. माधव सरकुंडे, चेहरा हरवलेली माणसं, देवयानी प्रकाशन, यवतमाळ, 2015

11. डॉ. संजय लोहकरे, आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश, दिलीराज प्रकाशन, पुणे,  2015   

 

 

समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ (विशेष संदर्भ: मी तोडले तुरुंगाचे दार) samakalin adiwasi kavitaon mein vaicharik chunoutian

 


समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ 

(विशेष संदर्भ: मी तोडले तुरुंगाचे दार) 

                                                                                                                            -डॉ दिलीप गिऱ्हे 

        समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में लेखक प्रा. माधव सरकुंडे का नाम बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता हैं जिन्होंने कविता इस विधा के क्षेत्र में मनोगत, रानपाखरांची संसद,मी तोडले तुरुंगाचे दार(2011), चेहरा हरवलेली मानसं(2015) और एक अनुदित काव्य संग्रह ब्लैक इस ब्यूटीफुल यह लिखकर मराठी आदिवासी कविताओं में अपना नाम स्थापित किया| इसके साथ उनकी वैचारिक लेखन संपदा में ‘सल’, ‘धनगर आदिवासी नाहीत’, ‘आदिवासी अस्मितेचा शोध’, यह ग्रन्थ हैं तो ‘वाडा’ यह उनका उपन्यास हैं| कहानी साहित्य में ‘सर्वा’ और ‘ताडमं’ यह उनके कहानी संकलन हैं| और आने वाले दिनों में ‘शिक्षण राजकारण आणि धर्म’, ‘आदिनायक बिरसा मुंडा’ और ‘एका शाळा बाह्य मुलांची गोष्ट(आत्मकथा)’ यह उनकी आगामी ग्रन्थ सम्पदा हैं| उन्होंने ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ इस काव्य में प्रस्थापित व्यवस्था के खिलाफ अपनी कलम की प्रतिरोधकता दिखाई हैं । आज भारत को स्वाधीनता के 69 साल पूरे हो गए हैं लेकिन जो परिस्थितियां उस समय थी वह आज भी बाहुल्य मात्रा में दिखाई दे रही हैं| उनके इस कविता संग्रह में ‘बंधुनों’, ‘तुम्ही ठरावा’,’मैलाचा दगड’, ‘ज़र असेल काळजात तर ठोका’, ‘बिरसा’ यह उनकी लंबी कविताएँ हैं तो इसके बावजूद 14 कविताएँ लघु हैं| यह कवि आदिवासी लेखक होकर भी वह अपने विचार बुध्द, फुले, अम्बेकर के विचारों से जोड़ते हैं| प्रा. डॉ. अशोक काम्बले उन्हें ‘वादळाचा वेध घेणारा कवी’ यह कहा हैं तो प्रा. अशोक खंदारे उन्हें ‘परिवर्तानाच्या लढ्याचे रानाशिग’ यह नाम देते है| आज आदिवासी साहित्य में लेखन करने वाले बहुत ही कम लेखक हैं| वह ‘बंधुनों’ इस कविता में आदिम जनसमूह को को यह संदेश देते हैं कि,  आज हम सबको एकता से और हिम्मत से अपने ध्येय की ओर बढ़ना होगा तभी हमारी उन्नति हो सकती हैं अन्यथा नहीं आज कई गाँव हैं जो की ‘अंधविश्वास’ के बलि चढ़े हैं और भोंदू साथु महाराज लोग तुम्हारा उपयोग अपने फायदे के लिए कर रहें हैं इन सबसे बचके रहनां मेरे भाइयों| हजारों सालों से हमारा शोषण किया गया हमें विस्तापित किया गया आज हमारें साथ संविधान हैं किसे से डरने की जरुरत नहीं हैं हम अपने हक्क और अधिकारों के लिए हमेशा लढते रहेंगे संघर्ष करते रहेंगे| वह आगे कहते हैं कि बंधुनों तुम खुद को ही सवाल पूछो उसका भी उत्तर अपने आप मिल जायेगा| जिस तरह से सूरज तेज किरणों के साथ उज्जला देता हैं उसी तरह से तुम भी अपने समाज के लिए एक रोशनी बनों| सूरज, चाँद, तारें इन सब मे जो गुण है वह गुण भी हम सब मे हैं अब दिखाने का समय आ गया हैं| क्रांति का संदेश और गीत गाने वाली नदियाँ तुम्हें बुला रही हैं और तुम मनु के गंदी नाली के पास रुके हो? प्रकाश की किरनें  आपका स्वागत कर रहीं हैं जरा आ जाओं उज्जाले में| कवि आगे कहते हैं भाइयों और बहनों एक सवाल पुछु क्या आपको, क्या आपको इस प्रस्थापित व्यवस्था में जीवन जीते समय कभी आपके मन में घृणा नहीं पैदा हुई? कवि अपने भाइयों को कहते हैं कि-

बंधूनों !

तुम्ही महाकाव्य आहात

ऊरात मशाली घेऊन फिरणारे

तुम्ही महासागर आहात

ओठात वडवानाळ वाहून नेणारे

तुम्ही झुकवू शकता अनंत आकाश

तुमच्या पायावर

 तुम्ही पृथ्वीला नाचवू शकता तळहातावर|” 1  

इस विश्व में असंभव कोई भी बात नहीं हैं हर चीज को हम प्राप्त कर सकते हैं| कवि अपने समाज से संबोधित करते हुए कहता हैं कि विश्व में नई क्रांति लाने वाले तुम सभी मेरे भाइयों तुम एक नायक हो एक महाकाव्य हो| जिस तरह से सागर और महासागर में फर्क होता हैं उसी तरह तुम सब में अलग-अलग गुण हैं इस गुणों का सही तरिके से इस्तेमाल करों और अपने समाज को एक महासागर की तरह विशाल महाकाय बनाओं वह अन्धविश्वास का विरोध करते हुए यह कहते हैं कि यह धरती भगवान ने निर्माण की हैं ऐसा कहा जाता हैं | जब इस वैश्वीकरण ने पूरे पृथ्वी को तहस-नहस कर दिया हैं| और कोई नैसर्गिक आपदा आती हैं तो क्यों तुम्हारा भगवान नहीं आता इस आपदा का हल करने| आप दिन भर खेत में मेहनत करते हो और मिर्च के साथ भाकरी खाते हो और भटजी छावं में बैठकर भगवान की ही जेब काटकर वह घी के साथ रोटी खाता हैं| तब भी भगवान कुछ भी नहीं करता क्यों?  जिस धर्म को तुम्हारा सही धर्म क्या है? यही पत्ता नहीं है तो वह धर्म ग्रन्थ क्या काम के| जिस धर्म ग्रथों ने तुम्हारा भविष्य भरे धूप में खड़ा किया हैं वह धर्म ग्रन्थ क्या काम के| जिस धर्म ग्रंथों ने तुम्हारें दिमाग में गंधगी भरी हैं उस महाकाव्य को क्यों लेकर घूम रहें हो| तुम्हे क्रोध नहीं आता? अगर आपको अपना भविष्य बनाना हैं तो अतीत में जाकर अज्ञानता का खेल ख़त्म करना होगा और हमारा भविष्य हमें खुद निर्माण करना होगा| हमारे मंजिल के द्वार बहुत ही नजदीक हैं वह इंतजार कर रहें हैं हमारें भविष्य के निर्माण का| लेखक ‘तुम्ही ठरावा’ (आप तै करों) इस कविता में कहते हैं कि अगर जिंदगी में कुछ हासिल करना हो तो बड़े-बड़े संकटों का सामना भी करना चाहिए मैं तो अब आग को भी नही डरने वाला हूँ क्योंकि जितना कठिन संघर्ष या मेहनत करोगे तभी तुम यशश्वी हो जाओगे|  आप तै करों कि आपकों किस रास्तें से जाना हैं एक रास्ता विजय की ओर जाता हैं ओर दूसरा रास्ता पराजय की ओर जाता हैं| मैं तो जा रहा हूँ सक्सेस के रस्ते से...| आखिर कब तक तुम दूसरों की गुलामी सहते रहोगें इस गुलामी से बाहर आ जाओं और इस देश के लिए कुछ नया रास्ता दिखाओं| आप ही तै करों की इस धरती पर क्या बोना हैं ओर उस बोये हुए बिज से क्या उगाना हैं यह तुम्हारें हाथ में हैं| आज भुखमरी और कुपोषण के कारण हजारों बच्चों की जान दाव पर हैं तब भी तुम्हारें समझ में नहीं आ रहा है कि यह किसने किया और क्यों किया| आदिकाल से लेकर आजतक आपको बताया जा रहा हैं कि आज जिस रस्ते से जा रहे हैं वह गलत रास्ता हैं लेकिन आप सुनने के लिए तैयार ही नहीं अब बहुत हो चूका हैं बताना अब तुम खुद तै करों की तुम्हें क्या करना हैं| कब तक ऐसे जीते रहोगें मनुष्य होकर जन्म लिया हैं तो मनुष्य बनकर ही जिओं इस गुलामी को ठोकर मारो| लेखक आगे कहते हैं कि-

राज्यघटनेच्या युगातही

तुम्हाला गुलाम समजतो

तो गावगाडा मला मान्य नाही

तुमचं मानां झुकवत जगण

मी जगणं मनात नाही

सांगा गड्यांनो!

का पुन्हा पुन्हा विझतो

तुमच्याच चुलीतला जाळ?

का तुमचेच होते शोषण

सकाळ संध्याकाळ?

आपलेच मरण आपल्याच खांद्यावर घेऊन

किती काळ चालणार तुम्ही स्मशानांच्या इशाऱ्यावर?

विषमतेच्या पोशिंद्या व्यवस्थेला ठोकरून

मी निघालोय समतेच्या वाटेनी स्वातंत्र्याच्या गावी

तुम्ही तुमच्या जन्माची माफी मागून

येऊ शकता माझ्यासोबत

काय करायचे ते तुम्ही ठरावा! |”2

आज हर समाज को न्याय न्याय मिलने के लिए हमारें देश का संविधान हैं| लेकिन वर्तमान समय का दौर देखा जाये तो इसके विरुद्ध हो रहा हैं| हर व्यक्ति का स्वातंत्र, समता और बंधुता के अधिकारों पर अघात हो रहा हैं| लेखक कहता हैं कि इस देश में सभी मनुष्य को न्याय दिलाने के लिए ‘भारतीय संविधान’ है| इसके बावजूद भी हर व्यक्ति को न्याय नहीं मिल रहा हैं| कोई भी अत्याचारी अत्याचार करते समय यह ध्यान नही दे रहा हैं कि हम संविधान के विरोधी कृत्य कर रहें हैं| तुम कब तक गुलामी का हथियार बनकर जिओगे अब तो बाहर निकालों मेरे भाइयों इस जाल से| तुम्हारा ही क्यों हो रहा हैं शोषण सुबह से लेकर शाम तक अब समय आ गया हैं इस विषमते के खिलाफ आवाज उठाने का और अपने हक्क और अधिकार मांगने का | इसी देश में आज बहुसंख्य लोग अज्ञानता के कारण पत्थरों को पुंजते हैं जिस हाथ में ताकद हैं उसपर विश्वास नहीं करते हैं लेकिन उसी हाथ में बंधे हुए लाल दोर पर जरुर विश्वास करते हैं| इस देश में ऐसे अज्ञानता के पाठ पढ़ायें जा रहें हैं उस देश का क्या भविष्य हैं? मैं कभी इस अंधविश्वास के जाल में नही फ़सने वाला हूँ आप को क्या करना हैं यह अप ही तै करों..| ऐसे जादू-टोना पर अगर विश्वास करोगे तो इस सृष्टि का तो अपमान होने ही वाला है लेकिन देश का विकास भी कभी नही हो सकता|  जिस हक्क के रास्ते से तुम चल रहें हो वह रास्ता अगर समाप्त हो गया तो क्या हुआ| तुम चलते रहो जिस पैरों से तुम चल रहें हो वह पैर अपने आप नया रास्ता तैयार करेंगे| इस विश्व में जितने भी रस्ते बने हुए हैं उन सभी रास्तों को पैरों ने ही तो दिया हैं जन्म| इसलिए पैरों को एक नई दिशा से चलने के लिए कहो| जो रास्ता शोषण के कत्त्लाखाने की तरफ जा रहा हैं उसी रास्ते की तरफ ही तुम्हारी नजर हैं इस नजर को बदलों| बंधुनों इस विनाश कारी दुनिया में अपना कोई भी नही हैं| यहाँ कि सामंतवादी व्यवस्था अपने खिलाफ हैं| अब कितनी देर तक सोते रहोगें अब उठ खड़े हो जाओं और अपनी अस्मिता को बचाने के लिए तैयार रहों  मैंने तो सभी कारागृह के द्वार तोड़ डाले हैं तुम भी इस जेल से बाहर आ जाओं ओ देखो बिरसा तुम्हारी राह देख रहा हैं मैं तो चला अपने बिरसा के ‘उलगुलान’ के रास्ते से आप को क्या करना हैं यह आप ही तै करों...| कवि ‘मैलाचा दगड होऊन’ इस कविता में यह संदेश देते हैं कि मैं मैला पत्थर बनाकर आप को योग्य दिशा दिखाने के लिए खड़ा हूँ और आप मेरी बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं है| इस संसार में मैंने बहुत लोग देखे हैं कुछ लोग अपने आप को स्थापित करने के लिए दूसरों का शोषण करते हैं तो कुछ लोग समाज स्थापित करने के लिए गरीब लाचार लोगों का शोषण करते हैं आखिर क्यों? इस प्रश्न का जबाब उन लोगे के पास हैं जो शोषण करते हैं| कवि कविता के माध्यम से यह बताते हैं कि-

ही पृथ्वी आपली नाही

हे आकाश आपले नाही

म्हणून काय झाले रे?

आपले पंख तर आपले आहेत ना?

या सूर्यमंडळात

अनंत आकाश दडलेले आहेत

चला! मुर्दाड मने झटका

अन घ्या उंच भरारी

आपण आपल्या हक्काचे आकाश शोधू या! |”3

यह विश्व अपना नही, यह आकाश अपना नही तो क्या हुआ खुद के पंख तो हैं| यही हमें इस धरती पर सही रास्ते पर उड़ने शिखायेंगे|

गोंड जनजाति का लोकसाहित्य और जीवन Gond Adiwasi ka Loksahitya Aur Jivan

     


 गोंड जनजाति का लोकसाहित्य और जीवन

                                                                                -डॉ.दिलीप गिऱ्हे 

समाज में जनजागृति का काम लोकसाहित्य करता है। लोकसाहित्य समाज में रहेने वाले हर जाति-जनजाति का साहित्य होता हैं। आदिवासी साहित्य भी आज लोकसाहित्य का स्वरुप बन चूका है क्योंकि इस साहित्य में उसी समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनितिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ दिखाई देती है। इस सभी परिस्थितियों का स्वरुप मौखिक रूप से लिखित रूप में दिखाई देता हैं तो यह साहित्य इस जनजाति का लोकसाहित्य कहलाता है। विश्व के सभी जनजातियों का अपना अपना लोकसाहित्य हैं। मैंने महाराष्ट्र के गोंड जनजाति के लोकसाहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष का अध्ययन करने की कोशिस की हैं।

आज देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी समाज हैं । उनका सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष देखा जाए तो उसमे विभिन्नता दिखाई देती है । उनकी भाषा, संस्कृति बिल्कुल अलग-सी है। महाराष्ट्र के ‘गोंड’ जनजाति का इतिहास देखा जाए तो 1981 के जनसँख्या के आकडे यह बताते हैं कि 11,62,735 इतनी उनकी जनसंख्या हैं। महाराष्ट्र राज्य में कुल 47 जनजाति समूह वास्तव्य करते हैं, उसमे गोंड जनजाति की जनसंख्या सबसे अधिक है । यह आदिवासी जनजाति मुख्य रूप से चंद्रपुर, गडचिरोली, यवतमाळ, नांदेड, अमरावती, अकोला, वर्धा, नागपुर इस जिले में पाई जाति हैं । देश के राज्यों की बात की जाए तो महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश इन राज्यों में मुख्यत: पाई जाति है। इस जनसमूह की अलग सी अपनी भाषा लिपि है। उस लिपि का नाम है ‘गोंडी लिपि’ इसी लिपि में यह आदिवासी समाज लिखता हैं, बोलता हैं, पढ़ता हैं। महाराष्ट्र की मातृभाषा मराठी होने के कारण यह जनजातियाँ गोंडी भाषा के साथ-साथ मराठी भाषा  भी बोलते, लिखते हैं। कहा जाता हैं कि भाषा अनुकरण से सीखी जाता हैं यह बात बिल्कुल सच साबित हुई हैं। जो मनुष्य जिस समाज परिवेश रहता हैं उसी परिवेश की भाषा वह कुछ समय बाद सिखता हैं। गोंड जनजाति की अपनी भाषा हैं, अपनी संस्कृति हैं। वह जिस प्रदेश में रहते हैं वह प्रदेश ‘गोंडवाना राज्य’ इस नाम से जाना जाता हैं। गोंड जनजाति का खेती यह प्रमुख व्यवसाय माना जाता हैं। उसके साथ साथ वह पशु पालने का भी व्यवसाय करते है।

       गोंड जनजाति के गाँव में ‘गोटुलघर’ रहता है। यह एक बड़ा घर होता है। अविवाहित युवक-युवती यहाँ आते हैं। वह रात भर नाच-गाना करते हैं। यह लोग वापस में वंदन करते समय एक दुसरे को ‘जोहार’ कहते हैं। जनजाति की अपनी अलग सी संस्कृति हैं। नृत्य उनका बड़ा त्यौहार माना जाता हैं इसे ‘कर्मा’ कहते हैं। इस जनजाति के ‘डेमसा’ और ‘दंडारी’ यह नृत्य प्रकार भी हैं यह नृत्य प्रकार पारंपरिक माने जाते हैं। किसी के शादी के प्रसंग में यह नृत्य का प्रकार प्रस्तुत किया जाता हैं। यह नृत्य करते समय ‘प्रधान गोंड’ लोग ढोल और तासे बजाते हैं। दीपावली के कुछ दिन पहले के दिन से यह नृत्य की शुरुआत होती हैं। यह नृत्य को प्रस्तुत करते समय डप्पू, ढोल, खालिखोम, किंगरी, धुमेले, पिपोई, फरा, ऐसे कई नगाड़े के प्रकारों को बजाया जाता हैं। इस जनजाति में ‘परधान’ यह जाति गाने गाकर ढोल बजाकर अपने पूर्वजों की शूरवीर गाथा गाने के माध्यम से प्रकट करती हैं और वह अनाज के रूप में भिक्षा लेते हैं। ‘कटोरा’ यह कुल का वंश पुरोहित रहता हैं तो ‘देवरी’ यह गाँव की पुरोहित रहती हैं। यह जनजाति खाने में जंगल के खाने योग्य पशु, प्राणियों की मारकर उनका मांस खाती हैं। राजगोंड यह जनजाति गो मांस और मंकी का मांस को वर्ज्य मानती हैं । यह जनजाति अज्ञानता के कारण बहुत ही ज्यादा मद्द्पान करती हुई दिखाई देती हैं। यह लोग जितना भी कमाते हैं उससे दुगना वह उनका मद्द्यापन पर खर्च करते  हैं । यह जनजाति चार कुलों में विभक्त की गई हैं। इन सभी कुलों के नाम अलग-अलग हैं वह इस प्रकार हैं –

एडवन सगा कुल :

सात देवों का कुल हैं यह वह देव हैं–मारवे (मडावी), पुरुका, कोरिवटटा, मारसुकोल्हा (मरसूकुले) पेंदोर, वेरमा (येरमा), सुईतारा वेडामा, मेसराम आदि ।

सरवन सगा कुल:

       छ: देवों का यह कुल माना जाता हैं इस कुल में यह जनजाति आती हैं – आत्राम, गेडाम, कोटनाग, कोरेंगा, आराम, होराम, दहाम, दुन्गाम, काचिनुर, वेलादी, कोचरा, विइका, पोंदुर, कोतले, उरवेटा, कुरमेटा, वडे, तुमरा, कड़ापेज, राईसिराम, वेटि सलाम, मारपा, हेरेकुमरे, मंदारी ।

सेवन सगा कुल:

      यह कुल पांच देवों का माना जाता हैं इस कुल में प्रमुख यह जनजाति आती हैं–कुमरा, दरंजा, आलाम, आरक, अरे, गेडाम, किनाका, सुरपाम, कुसेंगा, कंसका, अनाका, जुगनाका, वलकट, पुसनाका, कारपेला, धुरवा, सोयाम, कोरचा, कचाल, चिकराम, सरलाट, परतसाल, महादरा, अदा, देवघर, कुरमा, घोडाम, अरकाम, आदि। 

नालवन सगा कुल:

        इस कुल में चार देवताओं महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता हैं। इसी कुल के अंतर्गत आनेवाली जनजातियाँ इस प्रकार हैं-परातसामी, शेरमाकी, सेरवन, नाईताम, मारपाची, साबाती, मागाम, पूसान, पुसाम, तलंदा, पोयाम, कुराम, केरवा, टेकाम, कोवा, नालुम, सिडाम, पारचक्की आदि।

       गोंड जनजाति यह द्रविड़ परिवार की एक मुख्य जनजाति मानी जाति हैं। भारतीय संविधान पारित कानून ‘अनुसूचित जाति व जनजाति आदेश अधिनियम 1976’ के अनुसार महाराष्ट्र राज्य में गोंड यह जनजाति 50 से ऊपर उप जातियों में बटी हुई हैं। इस उप जातियों में यह प्रमुख जनजातियाँ मानी जाति हैं-राज गोंड, आरख, अगारिया, असुर, बड़ी मारिया, बड़ामारिया, भाटोला, भिम्मा, भूता, कोइलाभूता, कोइलाभुति, भार, बायसन हॉर्न मारिया, छोटा मारिया, दण्डामी मारिया, धुरु, धुरवा, धोबा, धुलिया, डोरला, गायकी, गट्टा, गट्टी, गायता, गोंड गोवारी, हिल मारिया, कान्दरा, कलंगा, खटोला, कोयतार, कोया, खिरवार, खिरवारा, कुची मारिया, माडिया, माना, मन्नेवार, मोघ्या, मुंडिया, मुरिया, नागरची, नाइकपोड, नागवंशी, ओझा, राज, सोंझारी-झेरका, थाटिया, थोटिया, वाडे मारिया, वडे मारिया आदि।इन सभी जनजातियों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष अलग-अलग देखने को मिलता हैं।    

गोंड-धोबा:

    ‘धोबा’ यह गोंड जनजाति की उप जाति है। गोंडी भाषा और गोंडी संस्कृति यह उनकी पहचान हैं। यह जनजाति परिट, रजक, वरठी इस नाम से भी जानी जाति हैं। धोबा और धोबी यह अगल जातियां हैं धोबी यह जाति ‘हम धोबा हैं’ यह कहकर आदिवासीयों के योजनाओं का फायदा उठाती है। वास्तव में ‘धोबी’ यह जनजाति नहीं हैं।

गोंड-गोंडगोवारी:

      यह गोंड जनजाति का एक छोटा जनसमूह हैं। यह जनजाति गडचिरोली जिले के ‘कुरखेडा’ इस तहसील के परिसर में दिखाई देती हैं। गोंड जनजाति में जानवरों का पालन-पोषण करने वाले जाति को स्थानिक लोग ‘गोंड गोवारी’ कहते हैं। उनकी भाषा, संस्कृति, धर्म, गोंडी ही हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ में गोवारी वा गवारी इस नाम की भी जनजाति पाई जाति हैं। गाय गोवारी एवं दूध गोवारी यह उनकी उप जातियां हैं। यह जनजाति मुख्य रूप से नागपुर, अमरावती, वर्धा, यवतमाळ, भंडारा, चंद्रपुर, गडचिरोली इसी जिलें में पाई जाति हैं। कृष्णा, गंगा, जमुना यह नदियाँ उनके अराध्य दैवत हैं। ‘कोडेकोडेवान’ यह उनका प्रमुख देवता है। यह जनजाति एक ही कुल में शादी ब्याह नहीं करती। इस जनजाति के जातपंचायत के प्रमुख को ‘शेंड्या’ कहा जाता हैं।

गोंड-माना:

     गोंड जनजाति में ‘माना’ यह एक उपजात है इस जाति के अंतर्गत बडवाईक माना, खाद माना, क्षत्रिय माना, कुनबी माना, आदि जनजातियाँ आती हैं। इनके देवी-देवता बड़ादेव, बुरादेव यह हैं। यह जनजाति गोंडी भाषा बोलती हैं लिखती हैं। ‘माना राजा’ की कुलदेवता ‘माणक्य देवी’ थी। माना जनजाति के ग्राम पंचायत प्रमुख को ‘शेंडे’ कहा जाता है।

गोंड-मन्नेवार:

        यह जनजाति घर बांधनी का काम करती हैं। गोंड जनजाति की यह एक छोटी उप जाति  है। यह जनजाति आँध्रप्रदेश से 100-150 साल पहले आयी हैं ऐसा तर्क माना जाता हैं।

     अन्तः लोकसाहित्य को स्थापित करने के लिए लोक की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी तरह से महाराष्ट्र के गोंड जनजाति के इस विभिन्न पक्षों से उनका साहित्य अपनी अलग पहचान करता हैं यह साहित्य आज लोगों दिलों को छुने वाला साहित्य है इस साहित्य में आदिवासी समाज का वास्तविक जीवन चित्रित हुआ है इसलिए इस साहित्य को आज लोकसाहित्य का स्थान प्राप्त हुआ है। गोंड जनजाति यह गोंडवाना राज्य में बहुत समय से रहती आई है उनका अपना अलग-सा इतिहास है। इस राज्य में कई क्रांतिकारी वीर होकर चले गए जिन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपना बलिदान दिया। आज गोंड जनजाति के संस्कति के साथ-साथ आदिवासी संस्कृति की पहचान कई पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से हो रहीं हैं। गोंडवाना राज्य की सामाजिक एवं वैचारिक जागृति के लिए ‘गोंडवाना दर्शन’, ‘आदिवासी सत्ता’ इन जैसे और भी कई यह मासिक, त्रेमाषिक पत्र-पत्रिकाओं ने  पिछले  कई सालों से आदिवासी साहित्य की पहचान लोकसाहित्य के रूप में करा दी है। इन सभी पत्र-पत्रिकाओं में पत्रिका में गोंड जनजाति के साथ-साथ अन्य आदिवासी जनजातियों का भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष उभरता हुआ दिखाई देता हैं।

संदर्भ:

1१ डॉ.गोविंद गारे, महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती, कॉन्टिनेंटल प्रकाशन, विजयानगर, पुणे, प्रथम आवृति- 2000

2२ डॉ. गंगाधर मोरजे, लोकसाहित्य:सिध्दान्त आणि रचनाप्रकारबंध, पद्मगंधा प्रकाशन, पुणे, प्रथम संस्करण 2002

मराठी आदिवासी साहित्य:एक अध्ययन Marathi Aadiwasi Sahitya Ek Adhyayan



मराठी आदिवासी साहित्य:एक अध्ययन  

                                                                                                                                -डॉ.दिलीप गिऱ्हे

आज विश्व में अनेक भाषाओं  में साहित्य लिखा जा रहा हैं । साहित्य कौनसी भी भाषा का हो वह अपने-अपने स्तर पर श्रेष्ट होता हैं । वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए आज विविध विमर्श की बात विश्व स्तर पर हो रही हैं इस में ‘आदिवासी साहित्य’ भी एक बड़ा मुद्दा बन गया है । आज हिंदी, मराठी, गोंडी, कोकणी, भिल्ल, नागपुरिया, खड़िया, संताली, मुंडारी ऐसी अनेक भाषाओँ में आदिवासी साहित्य लिखा हुआ हैं और लिखा जा रहा हैं।आदिवासी साहित्य की परम्परा हजारों साल पुरानी हैं । लेकिन सामंतवादी व्यवस्था ने यह इतिहास लोगों के सामने नहीं आने दिया लेकिन आज के युवा कवि अपनी कलम को हत्यार बनाकर आदिवासी साहित्य लिख रहें है ।   

आज तक मराठी आदिवासी साहित्य में नौं आदिवासी साहित्य संमेलने, दो आदिवासी साहित्य परिषद, दो आदिवासी साहित्यिक मित्र मेळावे संपन्न हुए हैं । लगभग 50 कवियों के ऊपर आदिवासी कवियों का आदिवासी साहित्य लिखने में योगदान रहा हैं । शिक्षित युवक यह साहित्य विश्व स्तर पर ले जाने की तैयारी में लगे हैं विविध पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से यह साहित्य सामने आ रहा हैं । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा को भी बहुत ही विस्तार से आदिवासी कवियों ने लिखा हैं मोटे तौर पर मराठी आदिवासी साहित्य में डॉ .गोविंद गारे, प्रा.डॉ.विनायक तुमराम, वाहरु सोनवने, भुजंग मेश्राम, माहेश्वरी गावित, नेताजी राजगडकर, उषाकिरण आत्राम, डॉ. तुकाराम रोंगटे, डॉ.संजय लोहकरे, बाबाराव मडावी, वसंत नारायण कनाके, बी.भीमा आड़े, दशरथ मडावी, भगवान गव्हाड़े, रूशी मेश्राम, व्यंकटेश आत्राम, सुनील कुमरे, पीताम्बर कोडापे, रामचंद्र जंगले, चमुलाल राठवा, शंकर बळी, अमित गिरडकर, रवि कुलसंगे, दामोदर इलपाते, विनोदकुमार उईके, लक्ष्मणराव टोपले, प्रा.भीलवडीकर, अशोक तुमराम, संजय तुमराम, भाउराव मडावी, प्रा. संतोष गिऱ्हे, भाऊराव मडावी, पुरुषोत्तम शडमाके, कुसुम आलाम आदि कवी प्रमुख रूप में साहित्य लिख रहे  हैं ।  

मराठी आदिवासी लेखकों ने साहित्य के क्षेत्र में अपना स्थान कायम रखा है । आज समय के अनुसार नये-नये विचार सामने आ रहे है । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता में लेखन की परंपरा भुजंग मेश्राम से मानी जाती है ।   आदिवासियों ने आपना जीवन-संघर्ष कविताओं के माध्यम से बताना शुरू किया है । यह साहित्य अनुभूति की पहचान करने वाला है और भविष्य का वेध लेने वाला साहित्य है । आदिवासियों के कविताओं में खुद का दुःख है, संस्कृति है । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता इस विधा में आज के दौर में नवशिक्षित युवको ने कविता लिखना शुरू किया है । यह साहित्य साधारण दौर पर 1960 के बाद ज्यादा सामने आया है इसमे बहुत सारे कवियों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए है।   

1962 में सुखदेवबाबू उईके ने ‘मेटा पुंगार अर्थात पहाड़ी फूल’ भाग 1 व 2 यह कविता संग्रह प्रकाशित हुए है । इसी कविताओं से आदिवासी कविता लेखन का प्रारंभ हुआ । 1976 में भुजंग मेश्राम का ‘आदिवसी कविता’ यह कविता संग्रह प्रकाशित हुआ । यह कविता संग्रह गोंडी भाषा में लिखा है यह महाराष्ट्र के विदर्भ का पहला कविता संग्रह माना जाता है इललिए इस कविता संग्रह को भाषा की दृष्टी से अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है ।  इसके बाद एक-एक कवि सामने आए । डॉ. उत्तमराव घोंगडे- वनवासी (1982), डॉ. विनायक तुमराम- गोंडवन पेटले आहे (1987), वाहरु सोनवणे- गोधड (1987), भुजंग मेश्राम- उलगुलान (1990), रवि कुलसंगे- इंद्रीयारण्य (1990), पुरुषोत्तम शेडमाके- वनसुर्य (1990), प्रा. वामन शेडमाके – जागवा मने पेटवा मशाली (1991), उषा किरण आत्राम- म्होरकी (1997) व लेखानीच्या तलवारी, प्रा. माधव सरकुंडे- मनोगत, रामचन्द्र जंगले –धिक्कार (1997) व धरणाच्या भिंती (1997), दत्तात्रय भवारी- मनोगत (1973), डॉ . गोविंद गारे – अनुभूति (1994), सुनील कुमरे- तिरकमठा (1999), कृष्णकुमार चांदेकर–पतुसा(1999), सौ. कुसम आलाम – रानपाखरांची माय (2000), वसंत कन्नाके– सुक्का कुसुम, डॉ. संजय लोहकरे- आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश व पानझडी, वसंत कुलसंगे – अस्मितादर्श (2000), तुकाराम धांडे–वळीव (2002), सुरेश धनवे-जखम (2007), गोपाल आडे- जंगलकुस व लढा, चामुलाल राठवा- माझी सनद कोठे आहे (2004), वाल्मिक शेडमाके– मी उद्ध्वस्त पहाटतेचा शुक्रतारा (2001), सं डॉ. विनायक तुमराम–शतकातील आदिवासी कविता (2003), दा. मु. सिडाम–कारम मिरसिन (2004), डॉ. गोविंद गारे– आदिवासी मुलांची गोड गाणी (2004), रा.चि जंगले – इखारलेल्या तलवारी (2006), डॉ . नरेन्द्र कुलसंगे- आदिम सुगंध युक्ता (2007), रा. चि . जंगले – विरप्पा गोंड (2007), सौ . रेखा किसन डगळे– वेडी पाशिनी (2008), प्रेरणा कनाके– गया (2008), भुजंग मेश्राम – अभुज माड (2008), बाबाराव मडावी- पाखरं (2009), माधव सरकुंडे – ब्लक इस ब्यूटीफूल (2009), रा. चि. जंगले – पाउसपानी (2010), लक्ष्मण टोपले – आरड गे बाई (2010), मारोती उईके – गोंडवनतला आक्रंद (2010), डॉ. विनायक तुमराम – रानगर्भातील जखमा (2011), विट्टल राव कनाके –भ्रमररुंजन (2011), शंकर  बळी– ही वाट तिथून जावी (2011) आदि कवियों के कविता संग्रह प्रमुख है ।  

नाटक इस विधा में मराठी आदिवासी साहित्य बड़ा ही विश्वसनीय साहित्य रहा है । नाटक इस विधा की सुरुआत इस साहित्य में श्री तोड़साम का ‘सोनता कुर्स’ यह गोंडी भाषा के नाटक से हुई  है । इसके बाद रवि कुलसंगे का– कथा इन्द्रपुरीची (2005), आक्रोश ( अनुभवजन्य नाटक 2003), भागोजी नाईक (एकांकी संग्रह) यह उनके प्रसिद्ध नाटक है । प्रा. वामन शेडमाके का ‘महाबिरसा’ यह दो अंकी नाटक 2011 में प्रकाशित हुआ।   इसके बाद दशरथ मडावी का ‘क्रांतिसुर्य बिरसा मुंडा’ और ‘थ्री नॉट थ्री’ यह दो नाटक सामने आ गए । उस समय कवि भुजंग मेश्राम के नाटक कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए ।   

जीवनी (चरित्र लेखन ) लो लेकर मराठी आदिवासी साहित्य में आदिवासी साहित्य के चिंतक, विचारवंत, आदिवासी लेखक गोंडी भाषा के पुरस्कृते व्यंकटेश आत्राम ने आदिवासी वीर शंकरशहा और रघुनाथशहा उनके जीवन पर ‘दोन क्रांतिवीर’ इस नाम से जीवनी लिखी । यह जीवनी 1968 में प्रकाशित हुई । इसके साथ ही आदिवासियों के क्रांतिकारी नेते लोकशिक्षक नारायण सिंह उईके इनके जीवन वृतांत की खोज करने वाली जीवनी ‘गोंडवनातील क्रांतिवीर नारायण सिंह उईके’ यह ग्रन्थ डॉ . विनायक तुमराम ने महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मंडल की ओर से नवलेखन सहाय्य योजना के अंतर्गत 1986 में प्रकाशित किया । संत मुंगशुजी;एक कृतीशील तपस्वी’ और ‘धरती अबा जनतेचे विद्रोही रुप (1999), यह दोनों ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशित किये है । जेष्ट आदिवासी साहित्यिक डॉ. गोविंद गारे की ‘ठक्कर बाप्पा’ यह चरित्रात्मक किताब 1987 में प्रकाशित हुई । इतिहास लेखन पर आधारित किताबों में डॉ . गोविंद गारे जी ने ‘इतिहास आदिवासी विरांचा’, ‘आदिवासी वीर पुरुष’, ‘आदिवासी बंडखोर’, यह ऐतिहासिक ग्रन्थ अनुक्रमे 1982, 1984 व 2001 में प्रकाशित हुए है । वैचारिक ग्रन्थों में ‘आदिवासी विकासाचे शिल्पकार (1991), ‘आदिवासी विकासातील दीपस्तंभ’ (1998), स्वातंत्रढयातील आदिवासी क्रांतिकारक (2004)’, आदि ग्रन्थ डॉ. तुकाराम रोंगटे ने लिखे है ।  संशोधकीय लेखन परंपरा में मराठी आदिवासी साहित्य में डॉ. गोविंद गारे ने ‘ महाराष्ट्रातील दलित;शोध आणि बोध’ यह किताब 1960 में प्रकाशित हुई महाराष्ट्र शासन के पुरस्कार से सम्मानित ‘सह्याद्रितील आदिवासी महादेव कोळी’ 1975 में प्रकाशित हुई । इसके उपरांत व्यंकटेश आत्राम ने 1980 में ‘गोंडी संस्कृतीचे संदर्भ’ यह किताब प्रकाशित की और वर्त्तमान समय में मैं ‘हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष’ (1990-2015) तक इस विषय विषय पर महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा( महाराष्ट्र) में शोध कर रहा हूँ । ललित कला और वैचारिक स्तर पर मराठी आदिवासी साहित्य में जिन-जिन लेखकों का साहित्य सामने आया है उनमे प्रमुख रूप में ल. सू. राजगडकर- हितगुज (1978), डॉ. गोविंद गारे- आदिवसी मुलखाची भ्रमंती (2004), मावळची मुशाफिरी (1990) यह दो ग्रन्थ लिखे है आदिवासी साहित्य का यथार्थ दर्शन देने वाले में गंगाराम जानु आवारी ने ‘आदिवासींची लोकगीते’ यह ग्रन्थ सामने लाया है । इसके बाद महादेव गोपाळ- ‘आदिवासी गोड गाणी’, डॉ. गोविंद गारे– ‘आदिवासी लोकगीते (1986)’, मोतीराम कंगाली- कोल्या नृत्यांचा पुर्वेतिहास, विट्टल धुर्वे– जब मनविना के तार हिले (1975), यह कविता हिंदी भाषा को संदेह देती है ।   दूसरी ओर डॉ. भगवान गव्हाड़े एक मराठी भाषिक (अध्यापक )लेखक होकर भी उन्होंने हिंदी में ‘आदिवासी मोर्चा’ नाम का कविता संग्रह लिखा जो की आदिवासी साहित्य में बहुत ही चर्चित रहा है ।   

कहानी साहित्य में प्रा. माधव सरकुंडे जी के ‘ताडमं (2001)’, व ‘सर्वा(2000 )’, यह दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए है ।   उषाकिरण आत्राम जी का –‘अहेर (1996)’, कुंडलिक केदारी- ‘अस्वस्थ मी (2007)’, कहानी संकलन प्रकाशित हुए है।  मराठी साहित्य में आत्मकथा में नथुबाई गावित- आदोर (1995), बाबाराव मडावी-आकांत (1998), रामराजे आत्राम- उघडा दरवाजा (2009), यह आत्मकथा बहुत ही चर्चित रही हैं । उपन्यास विधा में आदिवासी साहित्यिक धीरे-धीरे अपने कदम रखने लगे है जिसमे नजुबाई गावित -तृष्णा (1995), व भिवा फरारी (2008), प्रा. माधव सरकुंडे – वाडा (1996), बाबाराव मडावी– टाहो (आक्रोश नाम से हिदी अनुवाद ) यह उपन्यास सामने आए है ।     

मराठी आदिवासी साहित्य में लिखित ग्रन्थ सम्पदा:

       आज आदिवासी साहित्य अपनी अलग सी पहचान कराता  है । मराठी आदिवासी साहित्य बहुत ही विशाल है ।   इस साहित्य में आज के दौर में शेकडो ग्रन्थ सम्पदा उपलब्ध है जिसका अध्ययन करने के बाद मराठी आदिवासी साहित्य की सही पहचान हो सकती है । जिसमे आदिवासी लेखक और गैर आदिवासी लेखकों ने यह साहित्य सामने लाने में अपना अनमोल योगदान दिया है ।  

    जिसमे डॉ. गोविंद गारे के-आदिवासी समस्या आणि बदलते संदर्भ (1993), आदिवासी लोकनृत लय, ताल आणि सूर (2004), आदिवासी लोककथा (2004), आदिवासी साहित्य संमेलने अध्यक्षीय भाषणे (2005), प्रा. डॉ . विनायक तुमराम- गिरिकुहरातील अग्निप्रश (2015 ), आदिवासी साहित्य दिशा आणि दर्शन (2012), डॉ. संजय लोहकरे – संपा – आदिवासी लोकसाहित्य शोध आणि बोध (2011), कवि आणि कविता (2014), संपा –डॉ. संजय कांबळे –पानझडी आकलन आणि अस्वाद, डॉ . तुकाराम रोंगटे –आदिवासी साहित्य: चिंतन आणि चिकित्सा (2014), आदिवासी साहित्य: कला आणि संस्कृति (2013), आदिवासी कवितेचा उष:काल आणि सद्द्यस्थिति (2013),डॉ. सुधाकर पंडितराव बोधीकर- निवडक विनायक तुमराम (2013), आदिवासी कविता रूप आणि बंध (2013), मारोती उईके – आदिवासी संस्कृतीवर हरामखोरी हल्ला (2013), सरकारी सरन आणि आदिवासींचे मरण (2011), रामदास भीमाजी आत्राम – तळमळ, गीतमाला , गोकुलदास मेश्राम – आदिवासी सिन्धुसंस्कृतीचे वारसदार व् त्यांचा धम्म (2006),  अभया शेलकर- आदिवासींच्या जमीनीबाबतचा कायदा (2016), डॉ. माहेश्वरी गावित – आदिवासी साहित्य विविधांगी आयाम (2015), प्रा. गौतम निकम- आदिवासींच्या समस्या:एक अध्ययन (2015), क्रांतिकारी आदिवासी जननायक (2010), एकलव्य आणि भिल्ल आदिवासी (2011), प्रभाकर मांडे– भारतीय आदिवासींचे स्थान (2003), आदिवासी मूलत: हिंदूच (2003), डॉ. श्रीपाल सबनीस– आदिवासी, मुस्लिम ख्रिचन साहित्यमीमांसा (2007), ग. शां . पंडित- आदिवासी उत्थानाचा हाकारा (2003), हबीब अंगार ई–मूलनिवासी वादाचे थोतांड (2007), प्रा. डॉ. भा. व्य .गिरधारी– आरसा:आदिवासी जीवन शैलीचा (2003), डॉ. संजय सावळीकर –भारतीय आदिवासी जीवन आणि संस्कृती (2014), स्वाती देशपांडे – शंबूक, एकलव्य यांच्या दुःखांना ब्राह्मण जबाबदार आहेत काय? (2009), निरंजन घाटे- आदिवासींचे अनोखे विश्व (2009), हेमंत कर्णिक – कोंडी आदिवासींची आणि नक्षलवाद्यांची (2012), गौतम खुशालराव कांबळे- जमीन सुधार व दलित आदिवासी (2014), मिलिंद थत्ते – रानबखर आदिवासींच्या जीवन संघर्षाचे पदर (2014), दीपक गायकवाड– आदिवासी चळवळ स्वरूप व दिशा (2005), प्रफुल शिलेदार– आदिवासी साहित्य आणि अस्मिता वेध भुजंग मेश्राम (2014), माधव बंडू मोरे – आदिवासी बोलू लागला (2006 ), संपा-डॉ. चिंतामण कांबळे –परिवर्तनवादी वैचारिक वादळ बाबाराव मडावी (2013), प्रभाकर मांडे- आदिवासींचे धर्मांतर एक समस्या (2003), प्रा. गौतम निकम– झाशीची आदिवासी झलकारीबाई आणि आदिवासी स्त्री:एक अभ्यास (2015), बिरसा मुंडा आणि मुंडा आदिवासी (2010), संपा-डॉ. प्रमोद मुनघाटे – आदिवासी मराठी साहित्य स्वरुप आणि समस्या (2007), सुरेश कोडीतकर– आदिवासी जीवन कथा आणि व्यथा (2008), बाबाराव मडावी- आदिवासी साहित्य शोध आणि समीक्षा (2013) आदि ग्रन्थ प्रमुख है ।  

आज का आदिवासी समाज :

            भारतीय समाज व्यवस्था में स्वतंत्रता के पहले अंग्रेजों ने आदिवसियों पर अन्याय–अत्याचार किया और आज देखा जाये तो उच्च वर्ण वादी व्यवस्था शोषण कर रही है उनके हक्क छिन लिए जा रहे है। जो योजनायें उनके नाम पर बनी है वह उनतक नही पहुच पा रही है आज भी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले मासूम आदिवासी शिक्षा से वंचित है अनपड़ है । उनको आज भी रोटी, कपड़ा मकान की पुर्तता नही हो पा रही है । इस बात पर मराठी के जेष्ट साहित्यिक प्रा.डॉ. विनायक तुमराम कहते हैं कि –“आज के आदिवासियों का सालों से शोषण हो रहा है । उन्हें जानबूझकर वनवासी कहा जा रहा है । सही तरीके से देखे तो आदिवासी यह हजारों सालों से जंगलों में रहते आया है । विशिष्ट पर्यावरण के सानिध्य में रहकर अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों का रक्षण करता आ रहा है । प्राचीन काल से दयनीय जीवन जीता आया हुआ यह समाज वर्त्तमान समय में कई संकटों से सामना कर रहा हैं।”       भारतीय शिक्षा प्रणाली ने आदिवासियों को श्रमप्रतिष्टा से जिने के लिए नही सिखाया इसलिए मराठी के विद्रोही लेखक वाहरु सोनवणे दादर यहाँ पर हुए कार्यक्रम में कहते है कि “आदिवासी युवक जव साहेब होकर अपने गाँव आता है तब वह अपने भाई को लंगोटय में देखकर शर्माता है यह शर्मीला पण कहाँ से आया उसके अंदर अपने सगे भाई की शर्म आने भावना किसने शिखाई इसकी खोज करनी चाहिए ।”  वैश्वीकरण ने आदिवासी संस्क्रती पर एक हल्ला ही किया है इसके कारन आदिवासियों की जमीनों पर कब्ज़ा किया जा रहा है उन्हें वहां से भगाया जा रहा है ।   इसके कारन आज आदिवासी समाज भूख से मर रहा है उनके बच्चे कुपोषण के शिकार बनते जा रहे है ।  

मराठी आदिवासी साहित्य क्या है?

आदिवासियों का धर्म. परम्परा, रुढ़ी, विवाह्संथा, सण, उत्सव, उनके जीवन में गरीबी, भूख, विषमता, अन्याय, पारिवारिक जीवन, उनका सांस्कृतिक जीवन, शिक्षा व व्यवसाय, अंधश्रद्धा इन सभी बातों को ध्यान में रखकर संवेदनशील कवि आदिवासी साहित्य की निर्मिती कर रहे है। मानवतावादी दृष्टिकोण सामने रखकर गैर आदिवासी लेखक भी आदिवासी साहित्य लिख रहे है। आदिवासी साहित्य क्या है?  इस मत पर अनेक साहित्यकारों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये है जिसमे- प्रा. वामन शेडमाके कहते है कि-“आदिवासी साहित्य याने प्रमुख रूप से गोंड, राजगोंड, परधान, माडिया, कोलाम, आंध, महादेवकोळी, भिल्ल, कोरकुं, वारली, पारधी, थोटी, बरडा, गामीत, धनवार, पावरा, वसावे, ओराव, यैसे विविध जनजातियो का समावेश आदिवासी समुदाय में है। इस समुदाय की संस्कृति का अध्ययन करना आज के साहित्य की जरुरत है इनके जीवन पर जो भी साहित्य लिखा गया वह आदिवासी साहित्य कहलाता है ।”  इस तरह से महाराष्ट्र में कुल 47 जनजातीय आदिवासी समाज में है उनकी संकृति ही उनकी पहचान है लेकिन कई आदिवासी समूहों का हिन्दू करन किया गया उनकी संस्कृति को नष्ट किया गया है यह सामंतवादी विचार धारा की एक नई चाल है । इसके बावजूद आज के युवा आदिवासी यह जानकर इस चाल से बाहर निकलने की कोशिश में लगे है। आदिवासी साहित्य के बारे में श्री.लक्ष्मण टोपले कहते है कि–“ आदिवासियों की व्यथा, वेदना, हर्ष, विहर्ष जिस साहित्य के माध्यम से प्रकट होता है वह आदिवासी साहित्य है। जिसमे से उनके दमित और कुंठित भावनाओं को एक नया रास्ता मिलता है और अपनी जीवन की व्यथा वह सामने रख सकते है।  जैसे जमीन में से नया पौधा अंकुर लेकर ऊपर आता है उस तरह का यह साहित्य है ।”

            उपर्युक्त बातों से यह पता चलता है कि दलित साहित्य जैसे हजारों सालों से शोषण का शिकार बना हुआ है  उसी तरह आज का आदिवासी समाज शोषण का शिकार बना है । जैसे- ‘जेव्हा मानूस जागा होतो’ (गोदावरी परुळेकर)  यह किताब पड़कर यह जान सकते है कि महाराष्ट्र के ठाणे जिल्हे में वारली आदिवासी समाज के किसानों पर का वहां के जमीदार, साहूकार, व्यापारीवर्ग अन्याय-अत्याचार करता हुआ दिखाई देता है। यह साहित्य आदिम जनजातियों की दुःख, व्यथा, का चित्रण करने वाला साहित्य है । कहा जाता है की वेदना ही विद्रोह की जननी है ।  इस बात को ध्यान में रखकर ही आदिवासी साहित्यकारों ने तीर के जगह कलम उठाकर आदिवासी साहित्य को सामने लाया है।   

संदर्भ ग्रन्थ सूची

1१ प्रा. डॉ विनायक तुमराम, आदिवासी साहित्य दिशा आणि दर्शन, स्वरुप प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण -2012

2२ डॉ. प्रमोद मुनघाटे, आदिवासी मराठी साहित्य स्वरुप आणि समस्या, प्रतिमा प्रकाशन, पुणे, प्रथम संस्करण-2007

3३ डॉ. माहेश्वरी गावित, आदिवासी साहित्य विविधांगी आयाम, चिन्मय प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण-2015

4४ डॉ. ज्ञानेश्वर वाल्हेकर, आदिवासी साहित्य:एक अभ्यास, स्वरुप प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण- 2009

5५ डॉ. तुकाराम रोंगटे, आदिवासी साहित्य चिंतन आणि चिकित्सा, दिलीपराज प्रकाशन प्रा. लि. पुणे, प्रथम संस्करण-2014

 ६ संपा-डॉ. संजय लोहकरे, आदिवासी लोकसाहित्य शोध आणि बोध, मेधा पब्लिशिंग हॉउस,अमरावती, प्रथम संस्करण-2014         



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