शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

“प्रकृति और मानव के संबंध को सजीव रखने वाला ‘इंदल’ उत्सव” -संतोष पावरा Aadiwasi Parv




“प्रकृति और मानव के संबंध को सजीव रखने वाला ‘इंदल’ उत्सव”

-संतोष पावरा
साहित्यिक, नंदुरबार मो. ७०३०५२२६५७
हिंदी अनुवाद-Dr. Dilip Girhe

‘इंदल’ आदिवासी समाज का एक महत्वपूर्ण उत्सव है। यह केवल एक पर्व नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के संवर्धन और प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक है। इस उत्सव के माध्यम से प्रेम, विश्वास, समानता, ममता और भाईचारे जैसे मानवीय मूल्य जीवंत रखे जाते हैं। यह निसर्ग और मानव-जीवन के अटूट संबंध को निभाने वाला एक अलिखित नियम है।

आदिवासी संस्कृति ही उनकी आचार-संहिता है। उनके लिए प्रत्येक प्रथा एक नियम की तरह होती है — क्या बोलना चाहिए, क्या नहीं बोलना चाहिए; कैसे व्यवहार करना चाहिए, कैसे नहीं — यह सब उन्हें उनकी संस्कृति सिखाती है। ये नियम उन्होंने प्रकृति के गहन अवलोकन से खोजे हैं। निसर्ग के नियमों को आत्मसात कर उन्होंने अपने जीवन की बुनावट की है।

जिन विचारकों ने आदिवासी संस्कृति का गहराई से अध्ययन किया है, वे यह बात स्वीकार करते हैं कि “यदि आदिवासी संस्कृति जीवित रही, तो ही प्रकृति जीवित रहेगी।” अन्यथा भोगवादी संस्कृति का बढ़ता प्रभाव मानव और प्रकृति — दोनों का नाश कर देगा। इसलिए आज के समय में आदिवासी संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन अत्यंत आवश्यक है।

सातपुड़ा पर्वत क्षेत्र — महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान के इलाकों में — पावरा (बारेला), भील और राठवा जैसी जनजातियाँ इंदल उत्सव बड़े उत्साह से मनाती हैं। इस पूजा में तीन प्रमुख देवताओं की एक साथ आराधना की जाती है —
हुडोव देव (जंगल देवता), इंदिराजा (कदंब वृक्ष का देवता) और उकणहर (अन्न देवी)।

यह उत्सव नवस (मनोकामना) पूरी होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इसका उद्देश्य है — गाँव और घरों में सुख-शांति बनी रहे, वर्षा भरपूर हो, फसलें लहलहाएँ, जंगली पशुओं से मनुष्यों और पालतू जानवरों की रक्षा हो, कोई महामारी या विपत्ति न आए। यह एक सामूहिक उत्सव होता है — कभी पूरा गाँव मिलकर, तो कभी परिवार मिलकर इसका आयोजन करते हैं।

यह उत्सव फसल कटाई के बाद, यानी जब लोग खेती के काम से मुक्त होते हैं, तब मनाया जाता है। दिवाली के बाद जब खेतों का काम निपट जाता है और नई बुवाई शुरू होने में समय होता है, उसी अवधि में विवाह, गृह-निर्माण और सामूहिक कार्य (‘लह्या पद्धत’) होते हैं। इसी समय गाँव में अन्य उत्सव — गाँव दिवाली, होली आदि भी मनाए जाते हैं।

लेकिन एक विशेष नियम यह है कि एक समय में केवल एक ही सामूहिक कार्य हो। जब होली का महीना शुरू होता है, उस दिन साग (साल) की लकड़ी का दंडा गाड़कर तैयारी शुरू होती है, और अगले महीने में होली जलाई जाती है। इस अवधि में न कोई विवाह होता है, न घर बनता है, न ही इंदल उत्सव मनाया जाता है — केवल होली की तैयारी होती है।

सातपुड़ा क्षेत्र में बुधवार और गुरुवार को शुभ दिन माना जाता है। बुधवार को ‘बुल्लू बुधवार’ — यानी शुद्ध, स्वच्छ और पवित्र दिन कहा जाता है। यद्यपि यह सब आदिवासियों के अलिखित नियम हैं, फिर भी इनका पालन बड़ी निष्ठा और श्रद्धा से किया जाता है। इसलिए आज भी इंदल उत्सव बुधवार या गुरुवार को ही मनाया जाता है।

इंदल नवस (मनोकामना) पूरी होने का उत्सव है। जब किसी की इच्छा पूरी होती है, तो वह पुजारी या भगत के पास जाकर ‘इंदिराजा’ की पूजा के लिए प्रतिज्ञा करता है और फिर इंदल उत्सव का आयोजन करता है।

यह उत्सव केवल आस्था का प्रतीक नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों को जोड़ने और प्रकृति के प्रति सम्मान का उत्सव है। यह आने वाली पीढ़ियों तक यह संदेश पहुँचाता है कि मानव जीवन में प्रकृति का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसी कारण, आदिवासी समुदाय के लिए ‘इंदल उत्सव’ का महत्व अद्वितीय और अनमोल है।

ब्लॉग से जुड़ने के लिए निम्न व्हाट्सएप ग्रुप जॉइन करे...